आदि शंकर आठवीं सदी के भारतीय हिंदू दार्शनिक और धर्म शास्त्री थे। उनकी शिक्षा का हिंदू धर्म पर गहरा प्रभाव पड़ा था। यह एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने धर्म में कई प्रकार के सुधार लाए। भगवत गीता जैसे धार्मिक ग्रंथों के ऊपर उन्होंने जो जो टिप्पणियां दी थी, उसके कारण ही उन्हें हम अब तक याद करते आ रहे हैं। मुख्य तौर पर वह दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी थे और उनके विद्या ने हमारे हिंदू धर्म के जितने भी संप्रदाय हैं सभी को खूब प्रभावित किया था। आदि शंकराचार्य जी ने भारत के आधुनिक विचार के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
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आदि शंकराचार्य का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था। जन्म स्थान दक्षिण भारत था। उनके माता का नाम श्रीमती आर्यम्बा तथा पिता का नाम श्री शिवागुरु था।
बड़ी छोटी उम्र में ही उनका लगाव सभी प्रकार के धर्म के ग्रंथों से हो गया था। उनका मन आध्यात्म की ओर चल पड़ा था।
आदि शंकराचार्य जी का सपना था कि हिंदू धर्म के अध्यात्मिकता के ज्ञान को भारत के सभी स्थानों तक पहुंचाया जाए तथा इस सपने को उन्होंने संपूर्ण रूप से पूरा भी किया।
उनकी मृत्यु 32 साल की उम्र में ही हो गई थी परंतु फिर भी उस उम्र तक में ही उन्होंने हिंदू धर्म को विकसित बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जो अत्यंत सराहनीय बात है।
उनका जन्म भारत के राज्य जो वर्तमान में केरल है, उसके एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके माता-पिता के लिए सबसे बड़ी समस्या यह थी कि लंबे समय से उनका कोई बच्चा नहीं हुआ था इसके समाधान के लिए एक समय बाद आदि शंकराचार्य जी की माता ने शिवजी की आराधना की जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने आदि शंकराचार्य जी के माता को वादा किया कि “समय आने पर मैं तुम्हारे घर में जरूर बच्चे के रूप में आऊंगा और इस संसार को धर्म का सही ज्ञान दूंगा”। इसके कुछ समय बाद आदि शंकराचार्य जी का जन्म हुआ। उनके माता-पिता के लिए वह पल ऐसा था मानो जैसे स्वयं शंकर भगवान ने उनके पुत्र के रूप में जन्म लिया हो और इसी कारण उन्होंने शिवजी की आराधना में अपने पुत्र का नाम शंकर रखा था जो आगे चलकर आदि शंकराचार्य बन गया और लोग उन्हें इसी नाम से याद करने लगे।
आदि शंकराचार्य एक बुद्धिजीवी छात्र थे जिन्होंने सभी वेदों के ज्ञान को अपने गुरुकुल से ही हासिल कर लिया था। छोटी सी उम्र में हर बच्चा खेलकूद जैसे कार्यों में ध्यान देता है परंतु आदि शंकराचार्य जी छोटी सी उम्र में ही धर्म के बड़े ज्ञानी बन गए थे क्योंकि उनकी रूचि भी धर्म के ज्ञान के प्रति बहुत ज्यादा थी। इसी कारण उन्होंने सन्यासी धर्म लेने का सोचा। अंततः उन्होंने संन्यासी धर्म ले भी लिया जिसके पीछे एक कहानी भी है। हुआ यह था कि जब शंकराचार्य जी ने सोचा कि मैं सांसारिक धर्म को छोड़ सन्यासी धर्म का पालन करूंगा तो उनकी मां ने इससे साफ मना कर दिया तो 1 दिन शंकराचार्य जी जब नदी में स्नान कर रहे थे तो एक मगरमच्छ ने उनके पैर को पकड़ लिया। तभी शंकराचार्य जी ने अपनी मां को जोर से पुकारा और कहा की मां जल्दी से मुझे सन्यासी होने की आज्ञा दो नहीं तो यह मगरमच्छ मुझे खा जाएगा। मगरमच्छ के डर से आदि शंकराचार्य जी की माता ने उन्हें सन्यासी बनने का आदेश दिया जिसके तुरंत बाद मगरमच्छ ने आदि शंकराचार्य जी का पांव छोड़ दिया। इसके बाद आदि शंकराचार्य जी स्नान कर नदी से उठे, घर को वापस लौटे और सांसारिक सभी धर्म को छोड़ सन्यासी बनने चल पड़े। यह धर्म की ज्ञान की प्राप्ति के लिए उनके द्वारा उठाया गया सबसे कड़ा कदम था तथा इसके कारण ही वह धर्म के सबसे बड़े ज्ञानियों के श्रेणियों में आ पाए।
आदि शंकराचार्य जी सन्यासी जीवन की शुरुआत अच्छी तरह करना चाहते थे। इसके लिए वे हिमालय मे बद्रीनाथ मे एक आश्रम में गए तथा स्वामी गोविंद पद आचार्य से मिले। उन्होंने अपने जीवन के संपूर्ण घटनाओं को उन्हें सुनाया और उन से विनती की कि वह उन्हें अपने छात्र के रूप में स्वीकार करने की कृपा करें। स्वामी गोविंद पद आचार्य जी को आदि शंकराचार्य जी की इस भाव में बहुत प्रसन्नता हुई जिसके फलस्वरूप उन्होंने आदि शंकराचार्य को अपना छात्र मान लिया तथा सन्यासी का संपूर्ण ज्ञान उन्हें देना शुरू किया। अपने गुरु से संपूर्ण सन्यासी का ज्ञान लेकर जब आदि शंकराचार्य एक संपूर्ण सन्यासी बन गए तब उनके गुरु ने उन्हें आदेश दिया कि वह काशी जाए और धर्म का प्रचार प्रसार करें। आदेश पाकर आदि शंकराचार्य काशी गए और वहां उन्होंने ब्रह्मसूत्र उपनिषद और गीता पर अपनी टिप्पणी लिखी।
आदि शंकराचार्य जी ने अपने धर्म यात्रा को बहुत ही व्यापक रूप से पूर्ण किया था जिसमें उन्होंने कई अन्य धर्म के ज्ञानियों के साथ सफर को पूर्ण किया था तथा धर्म के सभी ज्ञानियों के साथ उन्होंने सभी प्रकार के सार्वजनिक तथा दार्शनिक बहसों में भाग लिया। यह सभी ज्ञान तथा बातें स्पष्ट रूप से इतिहास में हमारे मौजूद है। उनके धर्म यात्रा में उन्होंने अपने छात्रों को लेकर धर्म का प्रचार-प्रसार बहुत ही अच्छे से किया ताकि संपूर्ण जगत धर्म से सही रूप से जुड़ सकें। उनके धर्म यात्रा का यही मूल उद्देश्य था कि वह जगत को धर्म से सही रूप में जोड़ सकें।
धर्म का प्रचार-प्रसार करते हुए ही आदि शंकराचार्य जी ने कई मठों की स्थापना की तथा ऐसा माना जाता है कि वह हिंदू मठ के दशनामी संप्रदाय के संस्थापक और अमृत परंपरा के माता-पिता हैं।
मान्यताओं के अनुसार हिंदू सन्यासियों के चार मठ है जिनकी स्थापना आदि शक्रराचार्य जी ने की थी जोकि निम्नलिखित है:-
1} पश्चिम में द्वारिका
2} पूर्व में जगन्नाथ पुरी
3} दक्षिण में श्रृंगेरी
4} उत्तर में वैदिक आश्रम
आदि शंकराचार्य जी के कई छात्र थे जिनमें से प्रमुख चार निम्नलिखित है:-
1} सुरेश्वर आचार्य
2}पद्मावत पाद
3}हंसते मलका
4}टोटका आचार्य
☆ आदि शंकराचार्य जी ने इन सभी प्रमुख आचार्यों को मठों के प्रभारी के रूप में रखा।
आदि शंकराचार्य जी मुख्य रूप से अपने टिप्पणियों के कारण ही जाने जाते हैं जो सभी धर्म के ज्ञानियों द्वारा मान्य है तथा उनकी टिप्पणियां मुख्य रूप से हम उपनिषद के रूप में पाते हैं और उन उपनिषदों के कई प्रकार है।
आदि शंकराचार्य जी के चरित्र की बात की जाए तो वह मन के सच्चे थे और शुद्ध आत्मा उनके शरीर में निवास करती थी। इन सभी बातों के साथ वह एक उच्चतम ब्राह्मण थे।
आदि शंकराचार्य जी की शिक्षा ने भारतीय हिंदू धर्म के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जो आज तक मानव को धर्म से जोड़े रखा हुआ है।
आदि शंकराचार्य जी अपनी माता की एक लौती संतान थी। जब उनकी माता ने उन्हे सन्यास लेने की अनुमति दी तब उन्होंने उनसे यह वचन लिया कि वे अपनी माता का अंतिम संस्कार करने अवश्य आयेंगे। संन्यासी बन जाने के पश्चात जब उनकी माता का अंतिम समय तो इस बात की अनुभूति उन्हे हो गई थी। एक संन्यासी होने के बाद भी अपनी माता को दिए हुए वचन तथा एक पुत्र के कर्तव्य की पूर्ति करने हेतु वे अपनी माता के अंतिम समय में उनके पास जा पहुंचे। उनकी माता की मृत्यु के बाद जब वे अपनी माता का अंतिम संस्कार करने गए तो सभी ने उनका विरोध किया क्योंकि यह संन्यासी धर्म के विरुद्ध था, परंतु उन्होंने इन परिस्थितियों के बाद भी अपनी माता का अंतिम संस्कार पूरे विधि विधान के साथ संपन्न किया। जब किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया तो उन्होंने अपने घर के सामने हिअपनी माता के शव का दाह संस्कार विधि पूर्ण किया तथा एक पुत्र होने का कर्तव्य निभाया और अपनी माता को दिया हुआ वचन भी पूर्ण किया। वे अपनी माता का अत्यंत सम्मान करते थे तथा उनसे प्रेम भी करते थे।
अपनी धर्मयात्रा के दौरान उन्होंने बिहार के महिषी नामक स्थान पर मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ किया था तथा उन्हे पराजित भी किया था परंतु वे मंडन मिश्र की पत्नी से हार गए थे क्योंकि उनकी पत्नी भरती वैवाहिक जीवन से जुड़े प्रश्नों के साथ शास्त्रार्थ कर रही थी और चूंकि शंकराचार्य जी बाल ब्रह्मचारी थे इसी कारण इस संबध में उन्हे कोई नही अनुभव था इसीलिए वे हार रहे थे परंतु उन्होंने शास्त्रार्थ को बीच में रोक कर उनसे कुछ समय मांगा तथा उन्होंने परकाया प्रवेश करके इस विषय में जानकारी और अनुभव प्राप्त किया तथा दुबारा शास्त्रार्थ में शामिल होकर भारती जी को पराजित कर दिया।
आदि शंकराचार्य जी 820 ईसवी में केदारनाथ के निकट मात्र 32 वर्ष की आयु में अपना देह त्याग कर स्वर्गलोग चले गए।
आदि शंकराचार्य जी के जीवन को अगर हम छोटे रूप में देखे तो दिखता है कि उनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था और मान्यताओं के अनुसार उनका जन्म स्थान दक्षिण भारत है। बहुत ही छोटी सी उम्र में जब अन्य बच्चे खेलकूद या अन्य कार्यों में ध्यान दे रहे थे वह आध्यात्म तथा धर्म की ओर अपना ध्यान दिए हुए थे इस कारण बहुत ही कम उम्र में वह धर्म के बहुत बड़े ज्ञानी बन गए थे और उन्होंने धर्म का ज्ञान अपने ही पास के गुरुकुल से ही ले लिया था और तो और धर्म से संपूर्ण रूप से जुड़ने के लिए उन्होंने सन्यासी धर्म को अपनाने का भी सोच लिया था जिसके लिए उनकी मां ने मना कर दिया तो एक दिन जब नदी में नहाते हुए आदि शंकराचार्य जी के पांव को मगरमच्छ ने पकड़ लिया था उस स्थिति को बड़ी ही चतुराई से इस्तेमाल करते हुए उन्होंने अपनी मां से सन्यासी धर्म का पालन करने की हामी मांगी ली क्योंकि उनकी मां डर गई थी जब उन्होंने अपने बेटे का पांव मगरमच्छ के मुंह में देखा। उसी स्थिति में डर के मारे उन्होंने आदि शंकराचार्य जी की बात को माना और अंततः उस मगरमच्छ ने शंकराचार्य जी के पांव को छोड़ दिया। आदि शंकराचार्य जी के जीवन की ओर अगर हम देखें तो पता चलता है कि वह अपने माता पिता के एक मात्र पुत्र थे जो काफी समय बाद हुए थे। मान्यताओं के अनुसार वह शिवजी का एक अवतार थे और इसीलिए प्यार से उनके माता-पिता ने उनका नाम शंकर दिया था। उनकी शिक्षा की बात की जाए तो अपने गुरु से सन्यासी धर्म का ज्ञान लेकर उन्होंने सभी वेदों तथा सभी धर्म ग्रंथों पर कई प्रकार की टिप्पणी लिखी जिन से ही वह बहुत प्रचलित हुए और आज तो उनको उनके उन्हीं टिप्पणियों के कारण याद किया जाता है। आदि शंकराचार्य एक ऐसे धर्म के ज्ञानी थे जिन्होंने यह साबित कर दिया था की अगर आप परिवर्तन लाना चाहते हैं तो आप को एक ऐसा व्यक्ति बनना पड़ेगा जो परिवर्तनशील सोच रखता हो तभी जाकर आप जिस बिंदु पर परिवर्तन लाना चाहते हैं उसमे परिवर्तन लाने में सफलता प्राप्त कर सकमेंते हैं। आदि शंकराचार्य जी की जिज्ञासु प्रकृति तथा कुछ पा लेने का जज्बा हम युवाओं को कई प्रकार के महत्वपूर्ण बातें सिखाता है जिनको अगर हमने अपने जीवन उतारा तो हम भी उनकी तरह अपने जीवन के सभी लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे।
धन्यवाद।
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