विश्वविख्यात भारतीय वैज्ञानिक जिन्होंने भौतिक विज्ञान, जीव विज्ञान तथा वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में अविश्वसनीय और सराहनीय कार्य किए है जिनके कारण पूरे विश्व में विज्ञान के ऐसे ऐसे चमत्कारिक आविष्कार हो पाए जिन्होंने मानव जीवन को सरल बना दिया तथा विश्व के समक्ष भारत की प्रतिष्ठा की गरिमा को उच्चतम सीमाओं तक ले गए। उन्होंने अपने जिज्ञासाओं के निवारण के लिए अपने ज्ञान का प्रयोग करते हुए कई अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर को खोजा और न केवल स्वयं तक बल्कि पूरे संसार के समक्ष उन तथ्यों को प्रस्तुत किया। उनकी देन मानव सभ्यता के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। उनके द्वारा प्रतिपादित नियमों और लेखों का प्रयोग आज भी विज्ञान के क्षेत्र में कार्य करने के लिए किए जाते है।
“The true laboratory is the mind
where behind illusions we uncover
the laws of truth.”
–जगदीश चंद्र बसु
जगदीश चंद्र बसु का जन्म 30 नवंबर 1858 को बांग्ला देश के ढाका जिले के मेमनसिंह गांव में हुआ था। उस समय भारत अविभाजित था। उनके पिता का नाम भगवान चंद्र बोस तथा माता का नाम बामा सुंदरी बोस था। उनके पिता एक डिप्टी कलेक्टर हुआ करते थे। वे भले हि एक ब्रिटिश अधिकारी थे परंतु उनकी अपनी संस्कृति और सभ्यता के प्रति लगाव और सम्मान सदैव बना हुआ था।
जगदीश चंद्र बसु एक संपन्न परिवार से आते थे परंतु फिर भी उनके पिता ने उनकी प्रारंभिक शिक्षा के लिए उनका दाखिला गांव के एक बंगला माध्यम स्कूल में ही कराया क्योंकि उनके पिता का ये विचार था कि अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करने से पूर्व अपनी मातृभाषा का ज्ञान प्राप्त करना भी आवश्यक है। वे गांव के स्कूल में अपने गांव के मित्रों के साथ अध्यन किया करते थे जो सामान्यतः किसानों और मच्छवारों के परिवारों से आते थे। अपने उन मित्रों के साथ रह कर वे पशुओं और पेड़ पौधों के बारे में काफी कुछ जाना करते थे। उस माहौल में वे न सिर्फ किताबी ज्ञान प्राप्त करते थे बल्कि बाहरी ज्ञान भी प्राप्त करते थे जिसकारण उनका लगाओ जीव विज्ञान और वनस्पति विज्ञान की ओर बढ़ा।
बंगला माध्यम के विद्यालय में पढ़ने के कारण उन्हें हमेशा अपनी मातृभाषा की ओर लगाव रहा और उन्होंने आगे चलकर बंगला भाषा में कई रचनाएं भी लिखी।
गांव में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने अपने आगे की पढ़ाई कलकत्ता से की। 1869 में उन्होंने कलकत्ता के सेंट जेवियर्स स्कूल से अपनी आगे की पढ़ाई पूरी की। उन्होंने 1879 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से भौतिक विज्ञान में अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की।
उन्हे जीव विज्ञान में काफी रुचि थी और इसलिए वे 22 वर्ष की आयु में चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई करने लंदन चले गए, परंतु अपने खराब स्वस्थ के वजह से उन्हें अपनी चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। अपनी चिकित्साविज्ञान की पढ़ाई छोड़ने के बाद वे कैंब्रिज के क्राइस्ट महाविद्यालय चले गए जहां भौतिक विज्ञान के एक प्रोफेसर फादर लाफोण्ट के कहने पर उन्होंने अपना भौतिक शास्त्र का अध्ययन पूरा किया।
जगदीश चंद्र बसु विदेश से अपनी पढ़ाई पूरी करके वर्ष 1885 में भारत लौट आए तथा प्रेसीडेंसी कॉलेज में वे एक भौतिकी के सहायक प्राध्यापक से रूप में कार्य करने लगे।
ब्रिटिश भारत में उस समय भारतीय शिक्षकों के साथ भेदभाव किया जाता था तथा उन्हें ब्रिटिश शिक्षकों की तुलना में मात्र एक तिहाई वेतन ही प्रदान किया जाता था। जगदीश चंद्र बसु ने इस बात का विरोध किया तथा वे तीन साल तक बिना वेतन के कार्य करते रहे, जिसके वजह से उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उनकी आर्थिक स्थिति काफी खराब हो गई तथा उन्हें कई कर्ज़ भी लेने पड़े तथा अपनी पुश्तैनी जमीन भी बेचनी पड़ी, परंतु उनका संघर्ष व्यर्थ नहीं गया। तीन साल तक बिना वेतन के काम करने और अपने विरोध के कारण चौथे वर्ष ब्रिटिश सरकार ने उनकी मांग सुनी तथा सभी भारतीय शिक्षकों को ब्रिटिश शिक्षकों के समान ही वेतन प्रदान करने लगी। उन्होंने यहां 1915 तक कार्य किया। वे एक बहुत ही कुशल प्राध्यापक थे। सन 1917 में यहां से सेवानिवृत होने के पश्चात उन्होंने कलकता में “बोस रिसर्च इंस्टीट्यूट” की स्थापना की तथा 1937 तक इसके निदेशक के रूप में कार्यरत रहे।
आज विश्व भर में रेडियो के आविष्कारक के रूप में मारकोनी को जानते है परंतु यदि सही मायनो में देखा जाए तो जगदीश चंद्र बसु को रेडियो के असली आविष्कर्तकर्ता माना जाना चाहिए।
एक ब्रिटिश भौतिक वैज्ञानी जेम्स क्लर्क मैक्सवेल ने सर्वप्रथम गणितीय रूप में विभिन्न तरंग दैर्ध्य वाले विद्युत चुम्बकीय तरंगों के अस्तित्व के बारे में बताया था जिसका सत्यापन उनकी मृत्यु (1879) के बाद हुआ। उसके पश्चात 1887-88 में ओलिवर लॉज मैक्सवेल ने तरंगों के अस्तित्व का प्रदर्शन तारों के साथ उन्हे प्रेषित करके दर्शाया। इनके बाद एक जर्मन भौतिक शास्त्री हैनरिक हार्ट्ज ने इन तरंगों पर कार्य किया तथा 1888 में मुक्त अंतरिक्ष में इनके अस्तित्व को एक प्रयोग के द्वारा दर्शाया। इनके कार्य को लॉज मैक्सवेल ने जारी रखा तथा आगे बढ़ाया और हार्टज की मृत्यु के पश्चात उन्होंने एक व्याख्यान दिया और उसे एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित कर दिया। उनके इस व्याख्यान से दुनिया भर के बहुत से वैज्ञानिक प्रभावित हुए जिसमे भारत के जगदीश चंद्र बसु भी शामिल थे। विद्युत चुम्बकीय तरंगों के लेखों से प्रभावित होकर उन्होंने भी इस क्षेत्र में कार्य करना आरंभ कर दिया।
जगदीश चंद्र बसु ने “माइक्रोवेव अनुसंधान” पर कार्य किया तथा विद्युत चुम्बकीय तरंगों के तरंग दैर्ध्य को मिलीमीटर स्तर पर ले आए।
सन 1894 में उन्होंने कलकत्ता में आयोजित एक सार्वजनिक प्रदर्शनी में मिलीमीटर रेंज की माइक्रोवेव का प्रयोग करके दूर रखे बारूद को प्रज्वलित करके तथा दूर रखे घंटे को बजा कर दिखाया था अर्थात बेतार संचार का प्रयोग किया। इसके पश्चात उन्होंने 1895 में बंगाल के “एशियाटिक सोसायटी” को “डबल अपवर्तक क्रिस्टल द्वारा बिजली की किरणों के ध्रुवीकरण” पर आधारित अपना पहला वैज्ञानिक लेख भेजा। इस पर आधारित उनका दूसरा लेख लॉर्ड रेले के द्वारा लंदन की “रॉयल सोसाइटी” को भेजा गया।
लंदन की “इलेक्ट्रीशियन” नामक पत्रिका के 36 vol में जगदीश चंद्र के लेख “एक नया इलेक्ट्रो-पालेरीस्कोप” प्रकाशित किया गया।
डॉ बसु ने रेडियो माइक्रोवेव ऑप्टिक्स पर कार्य किया तथा कई लेख लिखे। इस विषय पर लिखे गए उनके लेखों का प्रयोग रेडियो कम्युनिकेशन पर कार्य कर रहे वैज्ञानिकों ने किया जो उनके लिए अत्यधिक सहायक सिद्ध हुआ। गुगलीएलमो मारकोनी नामक वैज्ञानिक भी एक रेडियो सिस्टम पर काम कर रहे थे।
जगदीश चंद्र बसु रेडियो तरंगों को डिटेक्ट करने के लिए “सेमीकंडक्टर जंक्शन” का प्रयोग करने वाले प्रथम वैज्ञानिक थे तथा उन्होंने इस पद्धति में कई माइक्रोवेव कंपोनेंट्स की भी खोज की थी। उन्होंने ही सर्वप्रथम P-टाइप और N-टाइप सेमीकंडक्टर के अस्तित्व का पूर्वानुमान किया था।
जगदीश चंद्र बसु ने कई माइक्रोवेव उपकरण जैसे वेव गाइड, ध्रुवक, परावैद्युत लेंस और विद्युत चुम्बकीय विकिरण के लिए अर्धचालक सूचकांक का आविष्कार किया तथा उनका प्रयोग भी किया। उन्होंने सूर्य से आने वाले विद्युत चुम्बकीय तरंगों के अस्तित्व के बारे में भी बताया।
जगदीश चंद्र बसु ने वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में कई आविष्कार किए। उन्हे बचपन से ही प्रकृति और पेड़ पौधों से काफी लगाव रहा है। इसके कारण उन्होंने वनस्पतियों पर कई अध्यन किए तथा संसार को वनस्पतियों से जुड़े कई तथ्यों से अवगत कराया।
बायोफिजिक्स के क्षेत्र में भी उन्होंने कई महत्वपूर्ण योगदान दिए। उन्होंने यह बतलाया की पौधों में उत्तेजना का संचार रसायनिक माध्यम से नहीं बल्कि वैद्युतिक माध्यम से होता है।
उन्होंने माइक्रोवेव की तरंगों का वनस्पतियों के ऊतकों पर होने वाले प्रभावों का भी अध्यन किया। इसके साथ ही उन्होंने बदलते मौसम, बदलते तापमान तथा रसायनिक इन्हिबिटर्स के पौधों पर प्रभावों का भी अध्ययन किया। उन्होंने विभिन्न परिस्थितियों में “सेल मेंब्रेन पोटेंशियल” के बदलाव का अध्ययन तथा उसका विश्लेषण करके यह तथ्य प्रस्तुत किया कि “पौधे भी संवेदनशील होते है तथा उन्हें भी दर्द और स्नेह का अनुभव होता है।”
उन्होंने 1928 में “क्रेस्कोग्राफ” नामक यंत्र का आविष्कार किया जो पौधों की वृद्धि को मापता है।
जगदीश चंद्र बसु ने धातुओं तथा पौधों के ऊतकों में फटिग के प्रतिक्रिया का अध्यन किया। उन्होंने विभिन्न तरीकों से बने मिश्रण के प्रयोग द्वारा विविध धातुओं तथा कोशिकाओं में उत्तेजना उत्पन्न की तथा उसके परिणामों का अध्ययन किया जिसके अनुसार उन्होंने यह बताया की धातुओं और नकली कोशिकाओं में चक्रीय फटीग प्रतिक्रिया दिखाई देती है जबकि असली जीवित कोशिकाओं और धातुओं में अलग अलग प्रकार के उत्तेजनाओं के लिए अलग अलग चक्रीय प्रतिक्रिया दिखाई देती है। इसके साथ ही उन्होंने इसके रिकवरी प्रतिक्रिया का भी अध्यन किया।
•मोटर मैकेनिज्म ऑफ़ प्लांट
•रिसर्च ऑन इरिटेबिलिटी ऑफ़ प्लांट
•रिस्पॉन्सेज ऑफ लिविंग एंड नॉन लिविंग
•द नर्वस मैकेनिज्म ऑफ़ प्लांट्स
•ग्रोथ एंड ट्रॉपिक मूवमेंट ऑफ़ प्लांट इत्यादि।
1.उन्होंने सन 1896 में लंदन विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।
2.वे 1920 में रॉयल सोसाइटी ऑफ लंदन के सदस्य चुने गए।
3.जगदीश चंद्र बसु की 1903 में ब्रिटिश सरकार के द्वारा “कंपेनियन ऑफ दि ऑर्डर ऑफ दि इंडियन एम्पायर” (CIE) से सम्मानित किया गया था।
4.उन्हे 1911 में “कंपेनियन ऑफ दि ऑर्डर ऑफ स्टार इंडिया” (CSI) se सम्मानित किया गया।
5.1917 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें “नाइट” की उपाधि भी प्रदान की।
भारत के महान वैज्ञानिक डॉ जगदीश चंद्र बसु का निधन 23 नवंबर 1937 को हुआ।
जगदीश चंद्र बसु पहले भारत के पहले वैज्ञानिक शोधकर्ता माना जाता है। उन्होंने भौतिक विज्ञान, जीव विज्ञान, और वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने अपने अध्ययनों और लेखों के माध्यम से लोगो तक कई महत्वपूर्ण तथ्यों को पहुंचाया। भारत के इस बंगाली वैज्ञानिक के आविष्कारों के फलस्वरूप आज के आधुनिक युग में प्रयोग होने वाले कई आधुनिक उपकरण जो मानव के जीवन को सरलतम बनाने में सहायक है, उनका आविष्कार हो पाया है। उन्होंने अपने कार्यों के द्वारा भारत देश का गौरव बढ़ाया है। वे भारतीयों के लिए हमेशा स्मरणीय रहेंगे।
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