भारत को गुलामी की बंदिश से आजाद कराने के लिए इस भारत भूमि की माताओं ने ऐसे वीर सपूत जने जिन्होंने अपनी माता समान भारत को आजादी दिलाने के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया। स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति की अग्नि में अपने प्राणों की भी आहुति दे दी।
भारत के महान स्वतंत्रता सेनानियों में से एक ऐसे ही देशप्रेमी हुए जिन्हे हम शाहिद भगत सिंह के नाम से जानते है। उनकी देश प्रेम की गाथा आज भी भारतवासियों के मन में बसी हुई है जो देश के लिए उनके अद्भुत प्रेम, त्याग भावना और सच्ची निष्ठा को दर्शाती है और हर भारतीय स्वयं को ऐसे वीर सपूत की भूमि से जुड़ा पाकर गौरवान्वित करता है।
भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास के पन्नों में भगत सिंह और उनके बलिदान की गाथा स्वर्णिम अक्षरों में वर्णित है जो आज भी प्रत्येक भारतीय को देश के प्रति सच्ची निष्ठा रखने के लिए प्रेरित करती है।
“जो देश के लिए शहीद हुए
उनको मेरा सलाम है,
अपने ख़ून से इस जमीं को सींचा
उन बहादुरों को सलाम है।”
प्रारंभिक जीवन:-
भगत सिंह जी का जन्म भारत के एक ऐसे परिवार में हुआ था जो अपनी भारत माता के लिए पूर्णतः समर्पित था। उनका जन्म 27 सितंबर 1907 को लायलपुर जिले के बंगा में हुआ था (वर्तमान में पाकिस्तान में स्थित है)।
उनकी माता का नाम विद्यावती तथा पिता का नाम किशन सिंह था। उनके पिता तथा उनके दो चाचा अजीत सिंह और स्वान सिंह, करतार सिंह द्वारा संचालित गदर पार्टी में सम्मिलित होकर देश की स्वतंत्रता में अपना सहयोग दे रहे थे। उन सभी को 1906 में अंग्रेजी सरकार द्वारा लागू किए गए औपनिवेशिक विधेयक के विरोध में प्रदर्शन करने के कारण जेल हो गई थी और भगत सिंह के जन्म के समय वे जेल में ही थे।
बाल्यकाल काल से ही भगत सिंह की परवरिश एक क्रांतिकारी माहौल में हुई जिस कारण बचपन से ही उनके मन में अपने देश के लिए लगाव पनप चुका था ।
शिक्षा-दीक्षा :-
भगत सिंह जी की प्रारंभिक शिक्षा उनके गांव में ही हुई। उन्होंने अपने गांव में 5वीं कक्षा तक की पढ़ाई की और उसके बाद उनके पिता ने उनका दाखिला दयानंद एंग्लो हाई स्कूल, लाहौर में करवा दिया। इसके बाद उन्होंने लाहौर में ही नेशनल कॉलेज से बी ए की पढ़ाई शुरू की।
आजादी के संग्राम में हिस्सेदारी की शुरुआत :-
क्रांतिकारी परिवेश में पालन पोषण होने के कारण अंग्रेजों के कूकृत्यों को देखते हुए उनके प्रति भगत सिंह में मन में बचपन से ही घृणा हो गई थी। वे अपनी भारत माता के लिए कुछ करना चाहते थे। वे अपने चाचा के मित्र करतार सिंह सराभा और लाला लाजपत राय से काफी प्रभावित थे तथा उनकी ही तरह अपने देश की आजादी में अपना योगदान देने की इच्छा रखते थे।
वे महत्मा गांधी से भी अत्यधिक प्रभावित थे तथा उनका समर्थन करते थे। वे अपने कॉलेज में नाटकों में हिस्सा लिया करते जहां अपनी क्रांतिकारी सोच का प्रदर्शन किया करते थे तथा भारत के युवाओं को देश की आजादी के लिए अपना योगदान देने के लिए प्रेरित किया करते थे। वे एक बहुत ही अच्छे कलाकार थे तथा उनकी लिखी हुए स्क्रिप्ट सभी को काफी प्रभावित करती थी।
13 अप्रैल 1919 की मार्मिक घटना जालियांवाला बाग हत्या कांड ने पूरे भारत को शोकाकुल कर दिया था। इस घटना का भगत सिंह पर भी कभी प्रभाव पड़ा और अंग्रेजों के प्रति उनका क्रोध और भी ज्यादा बढ़ गया।
वे धीरे-धीरे महत्मा गांधी द्वारा चलाए आंदोलनों में हिस्सा लेने लगे। विदेशी सामानों का बहिष्कार करना, अंग्रेजी स्कूल के किताबों और कपड़ों को जलाना, जगह-जगह पोस्टर बना कर अंग्रेजों के खिलाफ लोगो को जागरूक करना इत्यादि कार्यों में जम कर भाग लेने लगे और इसके लिए उन्होंने अपनी कॉलेज की पढ़ाई भी छोड़ दी। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्यता भी ले ली थी।
महत्मा गांधी के प्रति असमर्थन की भावना :-
भगत सिंह जी महात्मा गांधी से प्रभावित होकर उनके साथ स्वतंत्रता के पथ पर चल पड़े थे तथा उनके हर कार्य में अपना समर्थन और योगदान देते थे परंतु 1919 में हुए चौरा-चौरी कांड में जब भारतीय क्रांतिकारियों ने पुलिस चौकी में आग लगा दी तो महात्मा गांधी ने अपने साथियों के इस कार्य की कड़ी निन्दा करते हुए अपना असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया क्योंकि वे चाहते थे की आजादी की ये लड़ाई पूरी तरह अहिंसा के पथ पर चल कर ही लड़ी जाए। उन्होंने उन क्रांतिकारियों का समर्थन नहीं किया।
महत्मा गांधी के इस कृत्य से भगत सिंह का उनके प्रति दृष्टिकोण बदल गया। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी छोड़ दी क्योंकि उनका मानना था कि अहिंसा का पथ सही है परंतु जरूरत पड़ने पर शस्त्र उठाना भी आवश्यक होता है जो गलत नहीं है और भारत को स्वतंत्रता दिलाने तथा भारत की जनता को अंग्रेजों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए अगर बल और हिंसा का प्रयोग भी करना पड़ा तो वो लोकहित में ही होगा।
वे इसके पश्चात चंद्रशेकर आजाद द्वारा संगठित गदर पार्टी से जुड़ गए।
भगत सिंह जी के क्रांतिकारी गतिविधियाँ:-
1.काकोरी काण्ड– भगत सिंह जी ने अपने साथियों के साथ मिल कर 9 अगस्त 1925 के दिन शाहजहांपुर से लखनऊ जाने वाली पैसेंजर ट्रेन जिसमे सरकारी खजाना भी जाने वाला था को काकोरी नमक स्टेशन में पूरी योजना और तैयारी के साथ लूट लिया। इस लूट की योजना में उनके साथ चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल तथा अन्य प्रमुख साथी सम्मिलित थे।
2.सांडर्स हत्या कांड- 17 दिसंबर 1928 को भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिल कर 32 एम एम की सेमी ऑटोमेटिक पिस्टल कॉल्ट से ब्रिटिश पुलिस अधीक्षक रहे जॉन सांडर्स की गोली मार कर हत्या कर दी थी। उन्होंने पुलिस अधिकारी स्कॉट को मरने की योजना बनाई थी पर गलती से उन्होंने सांडर्स की हत्या कर दी। इस हत्या कांड में चंद्रशेखर आजाद ने उनका पूरा सहयोग किया था। यह मामला “लाहौर षडयंत्र कांड” के नाम से भी जाना जाता है।
- सेंट्रल असेंबली में बमबारी- 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह जी ने अपने साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिल कर दिल्ली में स्थित तत्कालीन भारत के ब्रिटिश सेंट्रल असेंबली के सभागार में बम फेंक दिया था। इस बम से किसी की जान की हानी नही हुई थी क्योंकि उस बम को इस प्रकार बनाया गया था की उसे फेकने के बाद उससे केवल जोरदार आवाज आए। उन्होंने यह कार्य अंग्रेजी सरकार को चेतावनी देने के लिए किया था।
इन सब के बाद उनके तथा उनके साथियों के ऊपर मुकदमा चलाया गया और इन मामलों में दोषी ठहराते हुए भगत सिंह, राजगुरु तथा सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई ।
भगत सिंह का जेल में जीवन:-
भगत सिंह जी को सजा सुनाने के बाद उनके साथियों के साथ कुछ दिनों तक जेल में रखा गया। जेल में भारतीय क्रांतिकारियों के साथ अत्यधिक अमानवीय व्यवहार किया जाता था परंतु वे वीर क्रांतिकारी अंग्रेजों के इस व्यवहार से बिना डरे जेल में भी इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते रहे।
भगत सिंह जेल में लगभग 2 साल तक रहे। उन्होंने इस बीच कई किताबें पढ़ीं, कई लेख लिखे। वे न केवल एक देश प्रेमी थे बल्कि उनके अंदर एक लेखक भी विद्यमान था।
उन्होंने कई पुस्तक भी लिखे। उनके लेखन कला के प्रमाण आज भी उनके द्वारा लिखी गई किताबों तथा अपने परिवारजनो को भेजी गई चिट्ठियों में मिलते है।
उनकी कुछ प्रमुख कृतियां:
1.why i am atheist
2.एक शहीद की जेल नोट बुक
उन्होंने जेल में अपने साथियों के साथ 64 दिनों का भूख हड़ताल भी किया क्योंकि भारतीयों को जेल में ढंग का खाना भी नहीं दिया जाता था परंतु इस भूख हड़ताल के दौरान उनके साथी यतींद्र नाथ की मृत्यु हो गई।
जेल में भी भगत सिंह तथा उनके साथी अंग्रेजों के सामने कभी नहीं झुके।
भगत सिंह की फांसी:-
जेल में लगभग 2 साल का समय बिताने के बाद उनको तय समय अर्थात 24 मार्च 1931 को फांसी दी जानी थी, परंतु पूरे देश में जगह-जगह भगत सिंह तथा उनके साथियों को छुड़वाने के लिए प्रदर्शन होने लगे थे।
उनके फांसी की सजा में कोई बाधा उत्पन्न न हो इसलिए अंग्रेज सरकार ने उनके फांसी के लिए निर्धारित समय से एक दिन पहले ही उन्हे तथा उनके साथियों को फांसी देने का निर्णय लिया। इस तरह उन्हें 24 मार्च के स्थान पर 23 मार्च को ही फांसी पर चढ़ाने का निर्णय लिया गया।
23 मार्च को जेल के सभी कैदियों को शाम 4 बजे ही अपनी अपनी कोठरियों में चले जाने को कहा गया और उनके द्वारा पूछे जाने पर उन्हें ये कहा गया की ऊपर से आदेश है।
कैदियों को कुछ समझ नहीं आ रहा था की ये चल क्या रहा था। तभी जेल में आए नाई से उन्हे ये पता चला की रात को भगत सिंह तथा उनके साथियों को फांसी दी जाने वाली है। वे सभी ये जान कर अचंभित रह गए। उनसभी की निगाहे जेल में उनकी कोठरियों से होकर गुजरने वाले रास्ते पे टिक गई।
जब भगत सिंह को फांसी के लिए जेल का वार्डेन चरत सिंह लेने आया तो वे लेनिन की पुस्तक पढ़ रहे थे तथा अपनी आखरी इच्छा के रूप में उस पुस्तक को पूरी करने का समय मांगा।
जेल की घड़ी में जैसे ही 6 बजे इंकलाब की आवाज जेल में गूंजने लगी। भगत सिंह तथा उनके साथियों को फांसी देने के लिए मसीह जल्लाद को लाहौर के पास शाहदरा से बुलवाया गया था।
इंकलाब के नारे के साथ उन तीनो को 23 मार्च, 7 बजकर 33 मिनट पर फांसी दे दी गई। जल्लाद ने एक-एक कर तीनो के हाथ पैर बांध, उनके गले में रस्सी डाली और सबसे पहले फांसी पर लटकने के लिए सुखदेव के द्वारा हामी भरी जाने पर उनके बाद एक एक कर तीनों को फांसी पर लटका दिया।
वहां मौजूद डॉक्टर लेफ्टिनेंट कर्नल जेजे नेल्सन और लेफ्टिनेंट कर्नल एन एस सोढ़ी ने उन तीनों शवों की जांच की तथा उन्हें मृत घोषित कर दिया।
इस प्रकार वे तीनों देश प्रेमी खुशी-खुशी देश के लिए फांसी पर चढ़ गए।
भगत सिंह का अंतिम संस्कार :-
भगत सिंह तथा उनके साथियों की मृत्यु के पश्चात अंग्रेजों ने पहले ये निर्णय लिया की उनके शवों को जेल में ही जला दिया जाए परंतु फिर उन्हे ये विचार आया की इससे उठने वाले धुएं से जेल के बाहर खड़ी भीड़ को इसका पता लग जाएगा। अतः उन्होंने जेल की पिछली दीवार को तोड़ कर उन तीनों के शवों को बाहर निकाला तथा एक ट्रक पर बड़े ही अमानवीय ढंग से उनके शवों की उस पर रख कर रावी के तट पर ले गए पर रावी के नदी में पानी कम होने के कारण वहां उन्होंने उनका अंतिम संस्कार नहीं किया ।
वहां से अंग्रेज अधिकारी उनके शवों को सतलुज नदी के किनारे ले गए जहां उन्होंने उनके शवों को जलाने का निर्णय लिया। उस समय तक रात के 10 बज चुके थे।
परंतु अंग्रेज अधिकारियों ने जैसे ही शवों को जलाना प्रारंभ ही किया था तब तक लोगो को इसके बारे में खबर मिल चुकी थी और लोगों की भीड़ उस स्थान पर पहुंच गई जिन्हे देख कर अंग्रेज अधिकारी शवों को अधजला छोड़ कर ही भाग गई।
लोगो ने उन शवों की रक्षा की तथा अगले दिन पूरे सम्मान के साथ भगत सिंह तथा उनके साथियों के शवों के अवशेषों का पूरे विधि विधान से अंतिम संस्कार किया गया।
अपने महान क्रांतिकारियों की मृत्यु पर पूरा देश शोकाकुल था।
निष्कर्ष:-
भगत सिंह जी का जीवन पूर्णतः अपने देश को समर्पित था। उन्होंने देश की आजादी के लिए शादी भी नहीं की। वे अंग्रेजों के अत्याचारों के सामने कभी नहीं झुके। भगत सिंह की जीवनी आज भी देश के नौजवानों को देश की रक्षा के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए प्रेरित करती है।
वे आज भी भारत वासियों के हृदय में जीवित है और भारतीय इतिहास उनके जैसे वीर देशप्रेमी की गाथा से आज भी गौरवान्वित हो रहा है।
धन्यवाद।