भारतीय इतिहास के सबसे शक्तिशाली और वृहद “मौर्य साम्राज्य” के पराक्रमी और शौर्यवान सम्राटों में से एक महानतम शासक थे “सम्राट अशोक” जिनकी वीरता की कहानी भारत के इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय निर्मित करती है। वे मौर्य साम्राज्य के तीसरे शासक थे जिनका शासनकाल 269 से 232 ईसा पूर्व तक था। उनके शासनकाल में उनके साम्राज्य का विस्तार भी हुआ साथ ही साथ उन्होंने पूरे विश्व में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा दिया। उनकी नीतियों ने समाज में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाने में अभूतपूर्व योगदान दिया है।
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सम्राट अशोक मौर्य वंश के शासक बिन्दुसार के पुत्र तथा सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के पौत्र थे जो मौर्य वंश के संस्थापक थे।
सम्राट अशोक भी अपने पिता एवम् दादाजी के ही समान एक वीर योद्धा, महान सम्राट एवम् प्रजापालक राजा थे। बौद्ध विवरणों के अनुसार ऐसा कहा जाता है की महाराज बिन्दुसार की 16 रानियां और 101 पुत्र थे। उनकी रानियों में से अशोक की माता किसी राज कुल से नहीं थी। वे एक सामान्य महिला थी जिनका नाम देवी धर्मा था और महाराज बिन्दुसार ने उनसे प्रेमविवाह किया था।
अशोक के जन्म के बारे में सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है परंतु साक्ष्यों के अनुसार इतिहासकार उनका जन्मकाल लगभग 304 ईसा पूर्व बताते हैं। अशोक बाल्य काल से ही एक प्रतिभाशाली बालक थे। उनके रक्त में ही वीरता और शौर्य का प्रवाह होता था क्योंकि उन्हें ये गुण अपने पूर्वजों से विरासत में प्राप्त हुई थी। वे अल्पायु से ही शस्त्र चलाने में अत्यंत माहिर थे और निडरता, साहस और पराक्रम उनके आभूषण थे। उन्होंने अपने सामर्थ्य के बल पर सिंघासन प्राप्त किया एवम् राजा बनने के बाद अपने राज्य का विस्तार करके भारतीय उपमहाद्वीप के विस्तृत और अधिकांश भागों पर अपना अधिकार प्राप्त कर एक विशाल साम्राज्य के सम्राट बने।
उनके पराक्रम की ख्याति न केवल भारतीय उपमहाद्वीप में फैली बल्कि विदेशों में भी दूर-दूर तक लोग उनकी शौर्यगाथा से परिचित हुए तथा इसके अलावा वे बौद्ध धर्म के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा एवम् उसे विश्वविख्यात बनाने के लिए उनके द्वारा किए गए कार्यों के लिए भी प्रसिद्ध हुए।
सम्राट अशोक के जीवन के बारे में हमें उनके द्वारा खुदवाए गए प्रशस्तियों और अभिलेखों के द्वारा पता चलता है। उन्होंने अपने शासनकाल में कई अभिलेख खुदवाए ताकि वे अपनी बात उनकी प्रजा तक पहुंचा सके और वे इतिहास के पहले शासक थे जिन्होंने जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए यह तरीका अपनाया। उनके द्वारा खुदवाए गए अभिलेखों में दी गई जानकारी की सहायता से इतिहासकारों ने उनके जीवन के इतिहास का लेखन संभव बनाया।
इतिहासकारों के अनुसार, अशोक बचपन से ही युद्ध कलाओं में प्रवीण थे। चूंकि उनके पिता की कई रानियां थी इस कारण अशोक के सौतेले भाई भी थे। अशोक की माता देवी धर्मा के राजकुल से एवम् क्षत्रिय न होने के कारण अशोक के दूसरे भाई उससे भेदभाव करते थे। अशोक के भाइयों में से केवल दो भाई के ही नामों का उल्लेख पाया जाता है जो है- सुसीम और तिष्य। अशोक में बाल्यकाल से ही एक राजा बनने की प्रतिभा विद्यमान थी। उनके पिता ने उन्हें तक्षशिला के गुरुकुल में शिक्षा दिलवाई जिसके पश्चात उनकी प्रतिभा और भी निखर गई। वे शस्त्रविद्या में और भी पारंगत हो गए तथा एक महायोद्धा में परिणत हो गए।
शिक्षा पूरी करने के पश्चात राजा बिन्दुसार ने अपने पुत्रों को विभिन्न प्रांत परिचालन हेतु सौंप दिए थे। उनके ज्येष्ठ पुत्र सुशीम को तक्षशिला का प्रांत सौंपा गया था परंतु वहां विद्रोहियों के उपद्रव को रोकने एवम् व्यवस्था को नियंत्रित करने में राजकुमार सुशीम असमर्थ थे जिसके कारण उसने अपने पिता से अशोक की सहायता भेजने का आग्रह किया। राजकुमार अशोक के युद्ध कौशल से सभी परिचित थे। अतः उनके आने की खबर से ही वहां के उपद्रवियों ने अपने विद्रोह बंद कर दिए। जब अशोक तक्षशिला पहुंचे तो उन्होंने वहां की स्थिति बिना किसी युद्ध या प्रशासनिक कार्यवाही के ही नियंत्रित कर लिया। इस घटना के पश्चात उनकी ख्याति और भी ज्यादा बढ़ गई। उनकी वीरता के लिए उन्हें और भी ज्यादा प्रसिद्धि प्राप्त होने लगी। अशोक की बढ़ती लोकप्रियता के कारण उनके बड़े भाई सुशीम के मन में सिंघासन प्राप्त न होने का भय सताने लगा और उसने अपने पिता के समक्ष उसे षडयंत्र द्वारा बदनाम करके तथा उनसे कहकर अशोक को निर्वासन में भिजवा दिया जिसके पश्चात अशोक को कलिंग प्रदेश भेज दिया गया जहां वे बौद्ध संतों एवम् भिक्षुओं के संपर्क में आए। यहां रहकर उन्हे बौद्ध धर्म के बारे में तथा उनकी शिक्षाओं के बारे में पता चला।
बोद्ध सन्तो के पास रहकर वे कुछ वर्ष वहां रहे परंतु उसके बाद उज्जैन प्रदेश में चल रहे विद्रोहों को नियंत्रित करने के लिए उनके पिता ने उन्हे वहां भेज दिया। उज्जैन में अशोक ने अपने सेनापति की सहायता से वहां चल रहे विद्रोहाें का सफलता पूर्वक दमन कर दिया परंतु यहां उन्होंने अपनी पहचान गुप्त रखी थी। अशोक की बढ़ती प्रसिद्धि एवम् उसकी वीरता के कारण उसके सौतेले भाइयों का उसके प्रति ईर्ष्याभाव बढ़ने लगा। वे उसकी हत्या करने की योजनाएं बनाया करते थे।
सम्राट बिन्दुसार भी वृद्ध हो चले थे और अपने उत्तराधिकारी का चयन भी करने वाले थे। जब अशोक अपने राज्य से बाहर था तो उसके सौतेले भाइयों ने उसकी माता की हत्या कर दी।
अपनी माता की मृत्यु के बारे में ज्ञात होने के पश्चात अशोक ने अपने सौतेले भाइयों से उसका प्रतिशोध लेने का निश्चय किया।
इतिहासकारों के अनुसार अशोक अपने प्रारंभिक जीवन में अत्यंत ही क्रूर योद्धा था। उसकी इस प्रवृति के कारण उसे “चण्ड अशोक” के नाम से जाना जाता था। अशोक के पिता महाराज बिन्दुसार के कुल 101 पुत्र थे। अशोक के सभी भाई राजा बनने के लिए अशोक से ईर्ष्या भाव रखते थे और उसे हानी पहुंचाने के लिए तरह-तरह के षडयंत्र रचते थे। जब उन्होंने अशोक की माता की हत्या कर दी तो अशोक का क्रोध और भी भड़क उठा। उसने अपने 99 भाइयों की हत्या कर दी, केवल अपने सहोदर भाई तिष्य को छोड़ कर। उसके भाइयों ने राज्य प्राप्ति के लिए उसकी माता को मारा डाला इसलिए उसने उन सबकी हत्या करके अपने पिता का सिंघासन हासिल किया। अशोक ने लगभग 4 वर्षों (273 – 269 ईसापूर्व) तक अपने भाइयों के साथ संघर्ष करने के पश्चात 269 ईसा पूर्व में राज्य प्राप्त किया और मौर्य वंश के अगले शासक के रूप में पाटलिपुत्र के सिंघासन पर आसीन हुए। उन्होंने एक विस्तृत और शक्तिशाली साम्राज्य का निर्माण किया और पूरे विश्व में अपनी कीर्ति और यश को फैलाया। उन्हें “सम्राटों का सम्राट” कहा जाता था।
उपलब्ध जानकारियों और स्त्रोतों के अनुसार सम्राट अशोक की कई सारी रानियां थीं।
बौद्ध ग्रंथ दिव्यदान में अशोक की पत्नी के रूप में “तिष्यरक्षिला” का नाम वर्णित है। इसके अलावा अशोक द्वारा खुदवाए गए अभिलेखों में उनकी पत्नी के लिए “करुणावकी” का नाम उल्लेखित पाया गया है।
अशोक जब 18 वर्ष के थे तो उनके पिता ने उन्हें उज्जैन में उठ रहे विद्रोहों को नियंत्रित करने के लिए उन्हे अवंती का सूबेदार बना दिया था। उस समय उन्हें वहां “देवी” नामक एक युवती से प्रेम हो गया था। देवी “विदिशा” नामक स्थान के एक धनी श्रेष्ठी(व्यापारी) की पुत्री थी। उन दोनों का प्रेम प्रसंग उनके विवाह बंधन में परिणत हो गया। जब अशोक उज्जैन के प्रांत परिचालक थे तथा पाटलिपुत्र के राजकुमार थे तब उन्होंने देवी से विवाह किया। देवी उनकी पहली पत्नी थी। उनके विवाह का यह प्रसंग सिंहली अनुश्रुतियों के पाया जाता है। उनकी पहली पत्नी से उनके एक पुत्र जिसका नाम महेंद्र था तथा एक पुत्री जिसका नाम संघमित्रा था, का जन्म हुआ।
जब वे कलिंग प्रदेश में निर्वासन के दौरान भजे गए तो उन्हें वहां एक मछवारे की पुत्री जिसका नाम “कौर्वकी” या “करुणावकी” था, से प्रेम हो गया तथा उन्होंने उनसे विवाह भी किया। वे उनकी दूसरी पत्नी थी। अपनी दूसरी पत्नी से उन्हे एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम “तिवाला” या “तिवारा” था। इसका उल्लेख अशोक के अभिलेखों में मिलता है।
अशोक की तीसरी पत्नी रानी पद्मावती को माना जाता है। उनके बारे में बहुत अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है परंतु इतना कहा जाता है की उनकी मृत्यु बहुत पहले ही हो गई थी। रानी पद्मावती से अशोक का प्रेम विवाह हुआ था या ये एक राजनीतिक संबंध था, इस विषय में कोई जानकारी या साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। इतिहासकारों द्वारा ऐसा बताया जाता है कि रानी पद्मावती अशोक के तीसरे पुत्र कुणाल की माता थी जो आयु में अशोक के दो पुत्र महेंद्र और तिवाला से छोटे थे। कुणाल की अल्पायु की अवस्था में ही उसकी माता की मृत्यु हो गई थी। चूंकि कुणाल को अशोक का उत्तराधिकारी बनाया गया था इसलिए यह निष्कर्ष निकाला जाता है की रानी पद्मावती भी एक राज कन्या रही होंगी जिसकी वजह से उनकी संतान को सम्राट के उत्तराधिकारी के रूप में देखा गया।
अशोक का चौथा विवाह उन्होंने पाटलिपुत्र का सम्राट बनने के बाद एक राजनैतिक संबध बनाने के लिए एक छोटे से राज्य असंधिवत की राजकुमारी “असंधिमित्रा” से की। उन्हें सम्राट अशोक ने सारे शाही राज्याधिकार प्रदान किए और चूंकि उन्होंने सम्राट बनने के बाद उनसे विवाह किया था इसलिए वे सम्राट की मुख्य महारानी बनी। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी परंतु उन्होंने अशोक के तीसरे पुत्र कुणाल का पालन पोषण किया क्योंकि बहुत ही छोटी अवस्था में उसकी माता रानी पद्मावती की मृत्यु हो गई थी। इसी कारण कई बार असंधिमित्रा को ही कुणाल की जन्मदाता माता के रूप में देखा जाता है परंतु ऐसा नहीं है। रानी पद्मावती राजकुमार कुणाल की जन्मदात्री माता थी और रानी असंधिमित्रा उनकी पालन पोषण कर्ता। रानी असंधिमित्रा सम्राट अशोक की प्रधान रानी बन कर रही परंतु 240 ईसा पूर्व में उनका देहांत हो गया।
अशोक की पांचवी पत्नी का नाम “तिष्यरक्षा” था जो सम्राट अशोक की चौथी पत्नी रानी असंधिमित्रा की दासी थी। उनकी मृत्यु के बाद तिष्यरक्षा ने सम्राट अशोक की अत्यंत सेवा की एवम् वही उनकी देखभाल भी किया करती थी। वो अत्यंत ही सुंदर और गुणवान कन्या थी। सम्राट अशोक उसके रूप और उसकी सेवाभाव से उसकी ओर आकर्षित हो गए तथा उसे अपनी उपपत्नी बना दिया और कुछ समय बाद उसे मुख्य रानी का पद भी दे दिया। तिष्यरक्षा आयु में सम्राट अशोक से काफी छोटी थी तथा वे अशोक के पुत्र कुणाल से प्रेम करती थी परंतु कुणाल ने उनके प्रेमप्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया एवम् उसे अपनी माता का ही दर्जा प्रदान किया। तिष्यरक्षा ने इसे अपने प्रेम का अपमान समझा तथा उसने क्रोधवश कुणाल की आंखों को अंधा कर दिया। तिष्यरक्षा के कुणाल के प्रति प्रेम के विषय में यूं तो कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है परंतु इससे संबंधित दो बंगाली उपन्यास लिखे गए है जिनमे इसका वर्णन मिलता है।
“अशोकावदान” में भी तिष्यरक्षा द्वारा सम्राट अशोक के उत्तराधिकारी कुणाल को अंधा कर देने का वर्णन मिलता है।
अतः उपलब्ध स्रोतों और जानकारियों के अनुसार सम्राट अशोक की उपरोक्त वर्णित पांच पत्नियों का नाम इतिहास में मिलता है।
अशोक ने राज्यारोहण करने के पश्चात अपने राज्य का विस्तार करना प्रारंभ किया। उन्होंने पूर्व तथा पश्चिम की ओर अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। उनके द्वारा खुदवाए गए अभिलेखों के आधार पर उनके विस्तृत साम्राज्य की सीमाओं का निर्धारण किया गया है।
अशोक के 13वें शिलालेख में भी उनके राज्य के निकटवर्ती अन्य प्रदेशों के कुछ नामों का उल्लेख किया गया है जो उसके राज्य की सीमा निर्धारण करने में सहायक सिद्ध हुए, वे इस प्रकार है :-
योन, कंबोज, गंधार, रठिक, भोजक, पितनिक, आंध्र, नाभक, नाभपम्ति, परिमिदस
ये प्रदेश अशोक के राज्य में सम्मिलित नहीं थे बल्कि उसके राज्य के आसपास स्थित थे।
अतः इतिहासकारों ने सभी उपलब्ध साक्ष्यों और जानकारियों के आधार पर सम्राट अशोक के विस्तृत और वृहद साम्राज्य का उल्लेख किया है। उनके निष्कर्षानुसार अशोक का साम्राज्य उत्तर में हिमालय, पश्चिम में अफगानिस्तान और इराक, दक्षिण में कर्नाटक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक फैला हुआ था। सम्राट अशोक भारतीय उपमहाद्वीप के विशाल भाग पर राज करने वाले उस समय के महानतम शासक थे।
सम्राट अशोक एक वीर और पराक्रमी योद्धा थे। उन्होंने कई शक्तिशाली शत्रुओं को पराजित किया। अपने राज्यारोहण के आठ वर्षों के बाद उन्होंने “कलिंग का ऐतिहासिक युद्ध” लड़ा जिसने न केवल उनका जीवन बदल कर रख दिया बल्कि पूरे मौर्य साम्राज्य के इतिहास को भी पलट कर रख दिया। अशोक कलिंग प्रदेश को अपने अधीन करना चाहता था और इसके लिए उन्होंने सबसे पहले वहां के शासक को एक पत्र भी भेजा कि वे अपने राज्य को उनके अधीन कर दे परंतु वहां के शासक ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया जिस कारण अशोक ने कलिंग पर आक्रमण कर दिया।
सम्राट अशोक तथा कलिंग प्रदेश के सम्राट पद्मनाभन के बीच 261 ईसा पूर्व में धौली की पहाड़ियों में कलिंग प्रदेश के आधिपत्य को लेकर एक भीषण युद्ध लड़ा गया था। इस युद्ध के कारणों के रूप में निम्नलिखित तथ्यों को देखा जाता है :-
उपरोक्त कारणों के वजह से कलिंग का युद्ध लड़ा गया जिसका परिणाम अत्यंत ही भयावह था। दोनों शक्तिशाली सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ। कलिंग प्रदेश की जनता भी देशप्रेमी थी। अपने राज्य की रक्षा हेतु वे भी इस युद्ध में कूद पड़े। सम्पूर्ण कलिंग प्रदेश ही युद्धभूमि में बदलकर रह गया था जो योद्धाओं के बहते रक्त से रक्तरंजित हो गया था। मौर्य सेना संख्या में कलिंग की सेना से अधिक थी जिस कारण इस युद्ध के परिणामस्वरूप अशोक कलिंग पर विजय प्राप्त करने में सफल रहा।
अशोक ने भले ही युद्ध जीत कर कलिंग को अपने अधीन कर लिया था परंतु इस युद्ध ने अशोक को बहुत गहराई तक प्रभावित कर दिया। इस युद्ध में कलिंग की पूरी सेना मारी गई थी जिसमे लगभग 1.50 लाख से अधिक सैनिक थे, न केवल सैनिक बल्कि निर्दोष आम जनता भी इस युद्ध की बलि चढ़ गई। एक सम्राट की महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए निर्दोष लोगों के जीवन उजड़ गए जिस बात ने अशोक को अंदर तक झंखझोर कर रख दिया। उस युद्ध के दृश्यों और परिणामों ने अशोक के हृदय को इस तरह से आहत किया कि इस युद्ध के बाद उन्होंने हमेशा के लिए युद्ध विराम की घोषणा कर दी तथा जीवन पर्यंत कभी भी शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की। कलिंग का यह युद्ध उनके जीवन का परिवर्तक बिंदु माना जाता है जिसने उनके सम्पूर्ण जीवन को एक नया रूप और एक नई दिशा प्रदान की।
उन्होंने कलिंग युद्ध के बाद युद्ध विराम की घोषणा अवश्य ही की थी परंतु इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं था कि उनके पराक्रम और शौर्य में कमी आ गई थी। उस युद्ध के पश्चात भी उन्होंने इतने विशाल साम्राज्य पर लगभग 40 वर्षों तक शासन किया एवम् एक परोपकारी और विख्यात सम्राट के रूप में विश्व भर में प्रसिद्धि प्राप्त की। बिना शस्त्र उठाए भी उन्होंने इतना कुशल शासन चलाया कि आज भी उन्हें भारतवर्ष में श्रेष्ठ शासकों में शीर्ष स्थानों पर देखा जाता है।
ऐसा कहा जाता है कि सम्राट अशोक एक शिव भक्त थे तथा बौद्ध धर्म ग्रहण करने से पहले वे भगवान शिव की ही उपासना करते थे।
सम्राट अशोक कलिंग युद्ध में हुए विध्वंश और रक्तपात से अत्यंत आहत हो चुके थे। उन्होंने युद्ध करना हमेशा के लिए त्याग दिया था परंतु उनका मन विचलित और अशांत ही रहता था। वे अपने तनावपूर्ण मानसिक स्थिति से उभरने तथा मन की शांति प्राप्त करने के लिए बौद्ध संतों के संपर्क के आने लगे। उन्होंने धीरे-धीरे बौद्ध उपदेशों को सुनना, संतों की सेवा करना, दूसरों की सहायता करना एवम् अन्य धार्मिक कार्यों में स्वयं को लगा लिया।
बौद्ध धर्म के संपर्क में आने के बाद, उनके विचारों को जानने के बाद उनके अशांत मन को भी परम शांति की प्राप्ति हुई। उन्होंने धीरे-धीरे बौद्ध धर्म को अपना लिया और उसके आदर्शों और नियमों को अपने जीवन में भी उतार लिया। बौद्ध धर्म अपनाने के बाद उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ही इसके प्रचार-प्रसार करने एवम् लोगों के कल्याणकारी कार्यों में लगा दिया।
दीपवंश और महावंश के अनुसार, अशोक को उसके राज्याभिषेक के चौथे वर्ष में निग्रोथ नामक एक सात वर्षीय बौद्ध भिक्षु ने बौद्ध धर्म की दीक्षा दी थी तथा उसके बाद वे एक अन्य बौद्ध भिक्षु मोग्ग्लीपुत्त तिस्स के संपर्क में आकर बौद्ध धर्म से पूर्णतः प्रभावित हो गए परंतु जैसा उनके अभिलेखों में वर्णित है इसके अनुसार उन्होंने कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध धर्म अपनाया। दिव्यवदान के अनुसार सम्राट अशोक को उपगुप्त नामक एक बौद्ध भिक्षु ने दीक्षा प्रदान की। अतः इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे कलिंग युद्ध के पहले से ही बौद्ध धर्म के संपर्क में थे परंतु उस युद्ध के बाद उन्होंने पूरी तरह से बौद्ध धर्म को अपना लिया था और उसके बाद अपने सम्पूर्ण जीवन को ही बौद्ध धर्म को समर्पित कर दिया।
इस प्रकार सम्राट अशोक ने अपने शासन काल के दौरान न केवल स्वयं बौद्ध धर्म और उसके उपदेशों को अपनाया बल्कि उन्होंने एक नवउदित धर्म को विश्व विख्यात बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बौद्ध धर्म को प्रचारित करने में उनका योगदान सराहनीय है। संपूर्ण बौद्ध संप्रदाय में भगवान बुद्ध में पश्चात अगर किसी को पूजनीय स्थान प्राप्त है तो वो है सम्राट अशोक। उन्होंने अपने साम्राज्य को एक धर्म में बंध कर सामाजिक एकता लाने का कार्य किया था साथ ही लोगों को जीवन जीने के उचित मार्ग पर चलने का उपदेश भी दिया।
सम्राट अशोक ने अपने शासन काल में बौद्ध धर्म को संरक्षण प्रदान करने हेतु लगभग 250 ईसा पूर्व में पाटलिपुत्र के अशोकरामा में “तृतीय बौद्ध संगीति” का आयोजन करवाया था। इस संगीत का आयोजन भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के 236 वर्ष बाद आयोजित करवाया गया था।इस संगीति की अध्यक्षता बौद्ध भिक्षु मोग्ग्लीपुत्त तिस्स में की थी। इस संगीति में “अभिधम्मपिटक” की रचना हुई था तथा बौद्ध भिक्षुओं और भिक्षुणियों को अपने धर्म के प्रचार प्रसार करने हेतु दूर-दूर तक भेजा गया। इस आयोजन का मुख्य उद्देश्य बौद्ध संघ में बढ़ रहे भ्रष्टाचारों को दूर करने के लिए तथा संघ के दुश्मनों को चेतावनी देने हेतु ही किया गया था ताकि संघ की अखंडता को बनाए रख कर लोगों तक भगवान बुद्ध के द्वारा बताए गए जीवन के आदर्शों को पहुंचाकर उन्हे जीवन में मोक्षप्रप्ति का मार्ग प्रशस्त किया जा सके तथा उनका कल्याण हो जो महात्मा बुद्ध का उद्देश था।
अशोक के बौद्ध संघ की एकता को बनाए रखने के लिए सभी भिक्षुणियों और भिक्षुओं को यह चेतावनी भी दी थी कि जो भी संघ को खंडित करने का प्रयास करेगा या संघ के नियमों का उल्लंघन करेगा उसे दंडित किया जाएगा।
ऐसा कहा जाता है कि इस तृतीय संगीति के आयोजन के बाद ही सम्राट अशोक ने अपने सारनाथ स्तंभ को उत्कीर्ण करवाया जिसका सिंह स्तंभ और चक्र आज भारत का राष्ट्रीय चिन्ह है।
अशोक ने इस आयोजन के द्वारा संघ की एकता को बनाए रखने के अथक प्रयास किए परंतु फिर भी आगे जाकर समय और विचारों में परिवर्तन के कारण संघ विभाजित हो गया।
सम्राट अशोक ने धम्म नीति की स्थापना की जो एक नैतिक संहिता थी जिसका उद्देश्य समाज में प्रेम, शांति और नैतिकता की भावना को बनाए रखना तथा बढ़ावा देना था, जिसके विचार निम्नलिखित थे –
सम्राट अशोक द्वारा किए गए धम्म घोष के कारण उनकी प्रजा में नैतिकता और प्रेम भावना बनी रही। अन्य देशों के साथ भी उनके मैत्रीपूर्ण संबंध बने रहे। उनके नैतिक विचारों के कारण उन्हें अत्यंत प्रसिद्ध भी प्राप्त हुई।
सम्राट अशोक ने अपने शासन काल के दौरान कुल 33 अभिलेख खुदवाए जिनमे स्तंभ लेख तथा शिलालेख सम्मिलित है। इनका उद्देश्य अपनी प्रजा तथा अन्य लोगों तक अपनी बात पहुंचाना था। अपने राज्यदेशो तथा बौद्ध धर्म के उपदेशों को उन्होंने शिलाओं, स्तंभों और गुफाओं की दीवारों पर उत्कीर्ण करवाया था। उनके अभिलेख बांग्लादेश, भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, और नेपाल के विभिन्न जगहों पर पाए गए है।
उनके अभिलेख ब्रह्मी लिपि, खरोष्ठी लिपि तथा यूनानी भाषाओं में लिखे गए थे। पाली और प्राकृत भाषा के अभिलेख ,संस्कृत भाषा के अभिलिख, अरामेइक भाषा और ग्रीक भाषा के अभिलेख भी पाए गए हैं।
अशोक के अभिलेखों में 14 दीर्घ शिलालेख, 7 स्तंभलेख तथा 3 स्थानों से प्राप्त गुह्यलेख शामिल है। इसके अलावा लघु शिलालेख और लघु स्तंभलेख भी पाए गए हैं।
अभी तक पुरात्तवविदों द्वारा खोजे गए अशोक के अभिलेखों की संख्या कुल 40 हो चुकी हैं।
सर्वप्रथम अशोक के अभिलेखों को पढ़ने में “जेम्स प्रिंसेप” को 1837 में सफलता प्राप्त हुई थी। उनके कारण ही हम अशोक द्वारा उत्कीर्णित अभिलेखों को पढ़ कर उनमें दी गई जानकारियों से परिचित हो पाए। अशोक के अभिलेख इतिहास के पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। उनसे हमे तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक, समाजिक, और आर्थिक परिस्थितियों का पता चलता है।
इन अभिलेखों की सहायता से ही हम अपने महानतम सम्राट के उत्कृष्ट कार्यों को जान पाए तथा उनके नैतिक विचारों और उच्च आदर्शों का भी ज्ञान प्राप्त कर पाए।
भारतवर्ष श्रेष्ठ सम्राट अशोक की मृत्यु पुराणों के अनुसार 237 ईसा पूर्व में हुई। बौद्ध ग्रंथ दिव्यावदान के वर्णनानुसार, अपने अंतिम दिनों में सम्राट अशोक बौद्ध संघों को दान देने के कारण अपने राजकोष से बहुत अधिक मात्रा में धन दान कर चुके थे जिससे उनके आमात्य नाखुश थे और इसी कारण उन्होंने उसके पुत्र संप्रति को उनके खिलाफ भड़का दिया तथा उनके द्वारा दिए जाने वाले दान के लिए धन राशि देने पर रोक लगवा दी। उनको अपने निर्वहन के लिए भी दिए जाने वाले खर्चे को कम कर दिया गया। ऐसी परिस्थिति में उन्होंने अपने अंतिम दिन व्यतीत किए तथा पाटलिपुत्र में ही उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली और स्वर्ग सिधार गए। उनकी मृत्यु से जुड़ी इस घटना की पुष्टि तिब्बती लेखक तारानाथ तथा चीनी यात्री हवेनसांग द्वारा भी की गई है।
भारतीय इतिहास के शक्तिशाली राजवंशों में से एक मौर्य वंश के महान सम्राट अशोक जिन्होंने अपने समय में भारतीय उपमहाद्वीप के विशाल भाग में शासन किया तथा पूरे विश्व में बौद्ध धर्म को पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई। अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों में भले ही उन्हें एक कठोर और पत्थर दिल इंसान के रूप में देखा जाता था परंतु उन्होंने धीरे-धीरे धर्म को जानने के बाद स्वयं को एक अहिंसावादी, सदाचारी और परोपकारी मनुष्य में परिणत कर लिया। उन्होंने स्वयं के द्वारा अर्जित उच्च विचारों और ज्ञान को लोगों तक फैलाया ताकि वे भी अपने जीवन को सही दिशा प्रदान कर पाए।
सम्राट अशोक की वीर गाथा भारतीय इतिहास में सम्मानपूर्वक वर्णित है और उन्हें भारतवर्ष के एक आदर्श के रूप में हमेशा स्मरण किया जाता रहेगा। उनके द्वारा स्थापित अशोक स्तंभ के चक्र को भारत के राष्ट्रीय ध्वज में स्थान दिया गया है एवम् उसे भारत का राष्ट्रीय चिन्ह का दर्जा भी दिया गया है। वे केवल भारत के लिए भी नहीं वरन विश्व के उन सभी देशों में सम्माननीय है जहां आज बौद्ध धर्म विद्यमान है।
उन्होंने अपने कर्मों के द्वारा पूरे विश्व में अपनी छाप छोड़ते हुए कीर्ति और यश अर्जित किया है तथा उनका यह मान आज भी कायम है।
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