भारत वर्ष के महान, शक्तिशाली, कीर्तिमान, वीर और शौर्यशाली शासकों में से एक महायोद्धा सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य हैं जिनकी शौर्यगाथा भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में वर्णित है। वे एक महान सेनानायक और कुशल योद्धा थे। उन्होंने अपने साहस और शौर्य के बल पर महान मौर्य वंश की स्थापना की। उनके गुरु आचार्य चाणक्य के मार्गदर्शन में उन्होंने पाटलिपुत्र के सिंघासन पर अपना अधिकार प्राप्त किया और एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया। वे एक महान गुरु के महान शिष्य थे। उनके शासनकाल में ही अखंड भारत की नींव रखी गई थी।
चंद्रगुप्त के जन्म से जुड़ी सटीक जानकारियां या साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। जैन और बौद्ध ग्रंथों के अनुसार उनका जन्म 340 ई.पू. में पाटलिपुत्र में हुआ था।
ब्राह्मण साहित्य में उन्हे शुद्र बताया गया है। विशाखदत्त द्वारा रचित मुद्राराक्षस में उन्हे वृषल अर्थात् नीच कुल का कहा गया है। वहीं जैन ग्रंथों में उन्हे क्षत्रिय कुल का बताया गया है।
बौद्ध ग्रंथों में भी उनका वर्णन क्षत्रिय के रूप में ही किया गया है।
उनकी माता का नाम मुरा तथा पिता का नाम सर्वर्थसिद्धि था। उनके जन्म से पहले ही उनके पिता की मृत्यु हो गई थी।
वे अपनी विधवा माता मुरा के साथ रहते थे। बचपन से ही वे एक निडर और साहसी बालक थे।
जब चंद्रगुप्त 9 वर्ष के थे तो उनकी भेंट आचार्य चाणक्य से हुई, जो उनके साहसी और निडर स्वभाव से प्रभावित हो गए थे। आचार्य चाणक्य नंद शासक महाराज धनानंद से अपने अपमान का प्रतिशोध लेना चाहते थे तथा अपने अखंड राष्ट्र के स्वप्न को साकार करना चाहते थे और उनके इन दोनो उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उन्हे चंद्रगुप्त जैसे ही एक साथी की जरूरत थी जिसमे एक नेता, योद्धा और शासक बनने का गुण विद्यमान हो। अतः चंद्रगुप्त से मिलने के बाद उनकी माता से आज्ञा लेकर चाणक्य उन्हे अपने साथ ले कर जाते है और आगे जीवन में आने वाले संघर्षों का सामना करने के लिए उन्हे समक्ष बनने का परीक्षण देते है।
चंद्रगुप्त की शिक्षा उस समय के प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान तक्षशिला में आचार्य चाणक्य की देख-रेख में हुई। आचार्य चाणक्य उस समय तक्षशिला विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध और महाज्ञानी शिक्षक थे। उन्होंने चंद्रगुप्त को धर्म, अर्थ, शास्त्र, सैन्य कलाओं, वेद, कानून इत्यादि सभी की शिक्षा प्रदान की जिससे वो एक कुशल योद्धा बन पाए।
अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद जब चंद्रगुप्त आचार्य चाणक्य के उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए संपूर्ण रूप से तैयार हो गए तो उन दोनो ने मिल कर सर्वप्रथम पाटलिपुत्र से नंदवंश को समाप्त करने की योजना तैयार की। उन्होंने एक छोटी सी सेना तैयार की तथा उन्हें प्रशिक्षित करना प्रारंभ किया। उन्होंने कई छोटे-छोटे राज्य के शासकों से सहायता मांगी परंतु किसी ने उनका समर्थन नहीं किया क्योंकि पाटलिपुत्र का नंद साम्राज्य उस समय काफी बड़ा राज्य था और कोई उनके विरुद्ध नहीं जाना चाहता था।
ऐसा कहा जाता है कि नंद शासकों के विरुद्ध सहायता के लिए चंद्र गुप्त ने उस समय के महान विजेता सिकंदर से भी भेंट की थी जो उस समय पंजाब क्षेत्र में अपना अधिकार जमाकर बैठा था। यूनानी विवरणों में इसके साक्ष्य पाए जाते है। यूनानी साक्ष्यों के अनुसार चंद्रगुप्त के विचारों से सिकंदर क्रोधित हो जाते हैं और उसका साथ देने के बजाय सिकंदर उसे बंदी बनाने का आदेश दे देता है परंतु चंद्रगुप्त वहां से भागकर बच निकलता है।
चंद्रगुप्त ने अपने गुरु के मार्गदर्शन में एक सेना तैयार की और उसके बल पर तथा अपने गुरु की योजनाओं के साथ पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया परंतु नंदों की विशाल सेना के सामने उनकी सेना नहीं टिक पाई और उन्हे असफलता का सामना करना पड़ा।
अपनी हार के बाद उन्हे ये आभास हुआ कि यदि उन्हे पाटलिपुत्र पर विजय प्राप्त करना है तो सर्वप्रथम उसके आसपास के छोटे-छोटे राज्यों को जीतना होगा और एक सक्षम सेना तैयार करनी होगी। इसलिए अपनी सेना के साथ मिलकर चंद्रगुप्त पाटलिपुत्र के आसपास के राज्यों को अपने अभियान में शामिल करने में जुट गए। ऐसा कहा जाता है कि आचार्य चाणक्य ने अपनी सेना में कुछ विष कन्याओं को भी रखा था। यदि कोई शक्तिशाली शासक उनके अनुरोध को अस्वीकार करता या उनका विरोध करता तो उनके लिए इन विष कन्याओं की सहायता ली जाती थी।
इस प्रकार चंद्रगुप्त ने कई राजाओं का समर्थन प्राप्त कर लिया। इसके पश्चात उसने फिर से पूरी तैयारी के साथ धनानंद पर आक्रमण किया और इस बार उन्हे सफलता हासिल हुई। चंद्रगुप्त ने धनानंद का वध कर दिया।
धनानंद की मृत्यु के बाद पाटलिपुत्र का शासन चंद्रगुप्त ने अपने हाथों में ले लिया। उसने मौर्य वंश की स्थापना की तथा एक शक्तिशाली साम्राज्य का निर्माण किया।
प्रेम से आजतक कोई अछूता नहीं रहा चाहे वो महान सम्राट हो, साधारण व्यक्ति हो यहां तक कि स्वयं भगवान भी।
ऐसा कहा जाता है कि चंद्रगुप्त को धनानंद की पुत्री राजकुमारी दुर्धारा से प्रेम हो जाता है। धनानंद के वध के बाद उन्होंने राजकुमारी दुर्धारा से विवाह कर लिया था। रानी दुर्धरा से उनका एक पुत्र हुआ जिसका नाम बिंदुसार रखा गया। बिंदुसार के जन्म के विषय में ऐसी मान्यता है कि उनके जन्म के समय रानी दुर्धारा की मृत्यु हो जाती है। आचार्य चाणक्य शत्रुओं से चंद्रगुप्त की रक्षा करने के लिए उनके भोजन में हमेशा कुछ मात्रा में विष मिला दिया करते थे जिससे उनकी विष प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि हो जाए तथा कोई भी उन्हे विष देकर न मार पाए परंतु जब रानी दुर्धारा गर्भ से थीं तो उनके गर्भ के आखरी दिनों में एक दिन उन्होंने चंद्रगुप्त के भोजन की थाली से कुछ भोजन ग्रहण कर लिया था जिस कारण भोजन में मिले विष से वे भी प्रभावित हो गई और उनका पूरा शरीर विषैला हो गया। समय रहते आचार्य चाणक्य ने अपने सूझ- बुझ से उनके गर्भ से शिशु को निकल लिया था परंतु रानी दुर्धारा को नहीं बचा पाए और उनकी इस प्रकार मृत्यु हो गई।
चंद्रगुप्त की रानी दुर्धारा के अलावा भी एक और पत्नी थी। चंद्रगुप्त ने सेल्युकस निकटर को पराजित किया था। इसके फलस्वरूप आचार्य चाणक्य के कहने पर सेल्युकस ने अपनी पुत्री हेलेना का विवाह चंद्रगुप्त से कर दिया था।अतः साक्ष्यों के अनुसार चंद्रगुप्त की इन दो रानियों का ही उल्लेख पाया जाता है।
• पंजाब और सिंध पर विजय:-
सिकंदर के बेबीलोन लौट जाने के बाद पंजाब में इसके सेनानायकों के बीच फूट पड़ गई जिससे एक अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। इस स्थिति का फायदा उठाकर चंद्रगुप्त ने पंजाब और सिंध पर अपना कब्जा कर लिया जो सिकंदर के अधिकार में था और भारत को पुनः विदेशियों के कब्जे से मुक्त करा लिया।
• मगध पर विजय:-
चंद्रगुप्त ने नंदवंश को पराजित कर मगध पर अपना अधिकार स्थापित किया और अपने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की।
• सेल्युकस से संधि:-
सिकंदर के सेनापति सेल्युकस को पराजित करके उससे 305 ईसा पूर्व में चंद्रगुप्त ने संधि की तथा उसे अपनी कुछ शर्ते मानने को बाध्य किया। उसकी शर्ते इस प्रकार थी :-
1.काबुल, कंधार, बलूचिस्तान तथा हेरात के प्रदेश चंद्रगुप्त ने अपने अधिकार में कर लिए।
2.सेल्युकस की पुत्री हेलेना का चंद्रगुप्त से विवाह।
3.चंद्रगुप्त द्वारा 500 हाथी सेल्युकस को दिए गए।
4.सेल्युकस ने मेगास्थनीज को दूत के रूप में चंद्रगुप्त के दरबार में भेजा।
• दक्षिण भारत की विजय:-
चंद्रगुप्त ने सौराष्ट्र, मालवा और काठियावाड़ पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया था। इसका उल्लेख रुद्रदमन के जूनागढ़ अभिलेख में मिलता है।
• विशाल साम्राज्य निर्माता:-
चंद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया। उसका साम्राज्य हिंदुकुश पर्वत से लेकर दक्षिण में मैसूर तक फैला हुआ था।
• लोककल्याणकारी शासक:-
चंद्रगुप्त एक प्रजापालक शासक था जिसने अपनी प्रजा को न्यायोचित शासन प्रदान किया। उसने अपने राज्य में शांति और समृद्धि बनाए रखा। वे सदैव अपनी प्रजा के रक्षा के लिए तत्पर रहते थे।
चंद्रगुप्त की शासन व्यवस्था :-
चंद्रगुप्त के शासन व्यवस्था के बारे में हमे कौटिल्य के “अर्थशास्त्र”, मेगास्थनीज के “इंडिका” तथा यूनानी विवरणों से ज्ञात होता है।
• स्थानीय शासन की विशेषताएं :-
• सैन्य प्रशासन की विशेषताएं :-
चंद्रगुप्त के पास एक बहुत ही विशाल सेना थी जिसमे पैदल सैनिक, हाथी, अश्व, और रथ शामिल थे। उसके पास एक
शक्तिशाली नौसेना भी थी। उनके सैन्य विभाग में एक चिकित्सा विभाग भी था जो युद्ध के समय में घायल सैनिकों को देखता था।
• आर्थिक शासन की व्यवस्था :-
• गुप्तचर विभाग की विशेषताएं :-
चंद्रगुप्त ने एक गुप्तचर विभाग का गठन किया था जिससे की राज्य की सुरक्षा भलीभांति की जा सके। चंद्रगुप्त प्रथम शासक थे जिन्होंने बड़े पैमाने पर एक शक्तिशाली और कुशल गुप्तचर विभाग का प्रयोग किया था।
चंद्रगुप्त की मृत्यु :-
सम्राट चंद्रगुप्त ने एक बहुत ही शक्तिशाली और विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी। लगभग 23 वर्षों के शासन के बाद उन्होंने जैन धर्म अपना लिया था। जैन आचार्य भद्रबाहु से प्रभावित होकर चंद्रगुप्त ने उनसे दीक्षा प्राप्त की तथा अपने राज्य का कार्यभार अपने पुत्र बिंदुसार को सौंप कर वे मैसूर के पास स्थित श्रवणबेलगोला चले गए। वहीं चंद्रगिरी की पहाड़ियों पर उन्होंने कायाक्लेश अर्थात् मृत्यु तक अन्न जल का त्याग करके अपने प्राण त्याग दिए।
निष्कर्ष :-
महान सम्राट चंद्रगुप्त की महान गाथा का संक्षिप्त वर्णन उपरोक्त लेख में प्रस्तुत किया गया है जिससे हम उनकी वीरता और शौर्य का अंदाजा लगा सकते है। सम्राट चन्द्रगुप्त को भारत का प्रथम ऐतिहासिक सम्राट कहा जाता है। उन्होंने एक बहुत बड़े भारतीय भूखंड पर अपना शासन स्थापित किया था। उन्होंने कई छोटे-छोटे राज्यों को एकजुट करके एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था।
उनका जीवन हमें यह सीख देता है कि यदि हम सही रास्तों पर चल कर कड़ी मेहनत करे तो हर लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते है। हमे स्वयं को इतना सक्षम बनाना चाहिए ताकि हम जीवन के हर क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन कर पाए और सफलता प्राप्त करें। इसके साथ ही उनसे हमे यह सीख भी मिलती है कि हमेशा अपने गुरु के दिखाए मार्ग पर चलना चाहिए तथा उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए क्योंकि उनकी दी हुई सीख हमेशा हमारी भलाई का मार्ग ही प्रशस्त करती है। अतः अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए जीवन में आने वाली हर कठिनाइयों का सामना डट कर करें तथा हमेशा दूसरों की भलाई करें। आपके कर्म ही आपको और आपके जीवन को महान बनती है।
धन्यवाद !
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