भारत में विभिन्न धर्मों के लोग निवास करते है, जिनमे से एक प्रमुख धर्म ‘सिख’ धर्म है। सिख एक ईश्वर में विश्वास करते है और अपने पंथ को गुरुमत अर्थात् गुरु का मार्ग कहते है। सिख धर्म के 10 गुरु हुए जिन्होंने अपने पंथ का नेतृत्व किया तथा सिख धर्म के लोग आज भी अपने गुरुओं के लेखनों और उनकी शिक्षाओं का पालन करते है। सिख धर्म के प्रथम गुरु, गुरु नानकदेव थे जिन्होंने इस पंथ की स्थापन की तथा उनके बाद और 9 गुरु हुए जिन्होंने इसका नेतृत्व किया। सिख धर्म के दसवें और अंतिम गुरु थे “गुरु गोविंद सिंह जी”।
गुरू गोविंद सिंह जी ने मुगलों से अपने कौम के लोगों की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। सिख धर्म के लोग आज भी उन्हे ईश्वर स्वरूप मानकर पूजते है।
“चिड़िया नाल मैं बाज लड़ावां, गिदरां नूं मैं शेर बनावा।
सवा लाख से एक लड़ावां, तां गोविंद सिंह नाम धरावां।”
गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म 5 जनवरी 1666 को वर्तमान भारत के बिहार राज्य में स्थित पटना साहिब में हुआ था। उनके पिता सिख धर्म के 9वे गुरु थे जिनका नाम गुरु तेग बहादुर था तथा उनकी माता का नाम गुजरी देवी था।
उनके बचपन का नाम गोविंद राय था। बिहार में स्थित उनकी जन्मस्थली “तख्त श्री पटना हरिमंदर साहिब” के नाम से प्रसिद्ध है।
गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म ऐसे समय में हुआ था जब भारत के लोग मुगलों के अत्याचारों से त्रस्त थे। गुरू गोविंद सिंह 4 वर्षों तक अपने परिवार के साथ पटना में रहने के बाद सपरिवार पंजाब चले और वहां से 2 वर्षों के पश्चात शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्क नानकी नमक स्थान में निवास करने लगे।
उस समय मुगलों के सिपाही जोर शोर से हिंदुओं को धर्म परिवर्तन करवाने में लगे हुए थे। कश्मीर के पंडित भी मुगलों का शिकार बन रहे थे। मुगलों के अत्याचारों और दुष्कृत्यों से ग्रसित और त्रस्त कश्मीरी पंडितों में अपनी गुहार गुरु तेग बहादुर जी को सुनाई तथा उनके समक्ष मुगल सम्राट द्वारा रखे गए शर्त को बताया कि “यदि कोई ऐसा व्यक्ति जो धर्मपरिवर्तन नहीं करना चाहता और वो अपना बलिदान देने को तैयार हो जाए तो उन सब का भी धर्म परिवार नहीं करवाया जाएगा।”
इस शर्त के बारे में जानने के बाद गुरु तेग बहादुर ने अपने लोगो और उनके धर्म की रक्षा के लिए स्वयं के प्राणों की भी आहुति देने का निर्णय किया। उन्होंने उन कश्मीरी पंडितों का नेतृत्व किया तथा दिल्ली गए और मुगलों को इस्लाम स्वीकार करने से साफ इंकार कर दिया जिसकी वजह से औरंगजेब ने 11 नवंबर 1675 को सबके सामने उन्हे मौत की सज़ा सुनाई और दिल्ली के चांदनी चौक में उनका सिर धड़ से अलग कर दिया।
अपने पिता की मृत्यु के समय गुरु गोविंद सिंह जी केवल 9 वर्ष के थे और क्योंकि उनके पिता सिखों के नौवें गुरु थे इसलिए उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र यानी गुरु गोविंद सिंह जी को सिखों के दसवें गुरु का पदभार सौंप दिया गया। 9 वर्ष की अल्पायु में ही 29 मार्च 1679 को वैशाखी के दिन उन्हे सिखों का 10वा गुरु बनाया गया।
गुरू गोविंद सिंह जी की शिक्षा दीक्षा चक्क नानकी आने के बाद वहीं प्रारंभ हुई। उन्होंने कई भाषाओं का जैसे फारसी,संस्कृत, इत्यादि का ज्ञान प्राप्त किया।
उन्होंने अस्त्र शस्त्र का प्रशिक्षण भी ग्रहण किया और एक वीर योद्धा बने। उन्होंने मार्शल आर्ट की कला भी सीखी। अपने पिता की मृत्यु तथा दशवे गुरु की जिम्मेदारियों के बाद भी उन्होंने अपनी शिक्षा पूर्ण की। वे एक कुशल और निपुण योद्धा में परिणत हो गए तथा उन्होंने आगे चलकर कई रचनाएं भी की।
गुरू गोविंद जी की तीन पत्नियां थीं। उनका पहला विवाह 10 वर्ष की आयु में ही 21 जून 1677 को माता जीतो से हुआ जो आनंदपुर से 10 किमी उत्तर में स्थित बसंतगढ़ की रहने वालीं थी। उनकी पहले शादी से उन्हे तीन पुत्रों की प्राप्ति हुई जिनके नाम थे जुझार सिंह,जोरावर सिंह और फतेह सिंह। ये तीनों भी अपने पिता की ही तरह पराक्रमी थे।
गुरुगोविन्द सिंह जी का दूसरा विवाह 17 वर्ष की आयु में 4 अप्रैल 1684 को माता सुंदरी से हुई तथा माता सुंदरी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम अजीत सिंह रखा गया।
गुरू गोविंद सिंह जी ने अपने 33 वर्ष की आयु में 15 अप्रैल 1700 में माता साहिब देवन से तीसरा विवाह किया। माता साहिब देवन की कोई संतान न थीं। गुरू गोविंद सिंह जी को अपने तीसरे विवाह से संतान सुख की प्राप्ति नहीं हुई परंतु उन्होंने आगे चल कर माता साहिब देवन को खालसा की माता के रूप में घोषित कर दिया था।
गुरुगोविन्द जी के चारों पुत्रों को “साहिबजादे” के नाम से जाना जाता था ।
गुरुगोविंद सिंह जी ने 30 मार्च 1699 के दिन अपने घर पर अपने अनुयायियों की एक सभा बुलाई तथा सभी को एकत्रित किया। उस सभा में उन्होंने सबसे पहले ये घोषणा की कि “उन्हें एक सिर चाहिए, जो भी तैयार हो देने को वो सामने आए।” उनकी इस घोषणा से वहां मौजूद सभी लोग अचंभित और भयभीत हो गए। गुरु गोविंद जी ने वही बात दो बार और दोहराई जिसके बाद लाहौर के एक खत्री दया राम जी सामने आए और उन्होंने गुरु गोविंद जी को अपना सर देने के लिए हामी भर दी। गुरु जी उन्हे अपने साथ एक तंबू में ले कर गए तथा उस तंबू के भीतर से रगड़ने की आवाज आई और फिर गुरु गोविंद सिंह जी अपनी तलवार के साथ बाहर आए जिससे खून टपक रहा था। यह दृश्य देख वहा खड़े सभी लोग और ज्यादा भयभीत हो गए है।
गुरू जी ने तंबू से बाहर आकर दुबारा वही घोषणा की। दुबारा यह सुनने के बाद वहां उपस्थित सभी लोग असमंजस में पड़ गए परंतु उनके तीन बार घोषणा को दोहराने के बाद पुनः
दिल्ली निवासी एक जाट जिनका नाम धर्मदास था वे सामने आए और अपना शीश देने को तैयार हो गए। उन्होंने उनके साथ भी वही प्रक्रिया दोहराई।
इस प्रकार उन्होंने 5 बार ये घोषणा दोहराई और उनकी घोषणा पर उनके 5 अनुयायी सामने आए और बिना कुछ पूछे अपना सिर देने को तैयार हो गए और गुरु जी बारी बारी उन्हे तंबू में ले कर जाते, वहा से रगड़ाहट की आवाज आती और गुरुजी खून से लतपत तलवार के साथ बाहर आते।
गुरुजी के इस व्यवहार से वहां उपस्थित बाकी लोग कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि वे क्यों उनकी हत्या कर रहे है। वहां उपस्थित कुछ लोग डर कर भाग भी गए। अंत में गुरुजी अपने उन पांचों अनुयायियों के साथ तंबू से बाहर आते है। यह देख सभी लोग दंभ रह जाते हैं और उन्हे यह पता चलता है की जो खून उन्होंने गुरु गोविंद जी की तलवार पर देखा था वे उन पांच लोगो का नहीं बल्कि पांच बकरियों का था जिनके सिर उन्होंने काटे थे।
गुरू गोविंद सिंह जी ने अपने अनुयायियों की परीक्षा लेने के लिए यह किया था तथा अपने उन पांच निडर अनुयायियों को उन्होंने “पंज प्यारे” का नाम दिया और “खालसा पंथ” की स्थापन की। उन पंज प्यारों का नाम था दयाराम, धर्मदास, हिम्मत राय, मोहक चंद, और साहिब चंद।
30 मार्च 1699 को खालसा पंथ की स्थापना करने के बाद उन्होंने 13 अप्रैल 1699 को आनंदपुर में अपने परिवार के साथ अमृत संचार समारोह का आयोजन किया। उस दिन उन्होंने अपने पंज प्यारों के लिए अमृत तैयार किया था जिसे “पंज प्याला” भी कहा जाता है। इस अमृत का उन्होंने सभी में वितरण किया तथा अपने पांच खालसों को अपने नाम के बाद “सिंह” उपनाम लगाने को कहा जिसका अर्थ था “शेर”।
इसी समारोह में गुरु गोविंद जी ने भी अपने अनुयायियों के आग्रह पर यह उपनाम धारण किया और वे “गोविंद राय” से “गोविंद सिंह” बन गए और खालसा के छठे सदस्य अर्थात छठे खालसा बन गए।
इस समारोह में उनके परिवार के सदस्यों ने भी खालसा की दीक्षा ली और यह उपनाम धारण किया।
गुरू गोविंद सिंह जी ने सिख समुदाय के सभी लोगो को पांच वस्तुएं अपने शरीर में सदैव धारण करने का आदेश दिया और उन पांच वस्तुओं को ही “पांच ककार” के नाम से जाना जाता है। पांच ककार में निम्नलिखित वस्तुएं शामिल है :
केश- बिना कटे बाल, कंघा- लकड़ी की कंघी, कड़ा- लोहे या स्टील का कंगन, कृपाण- खंजर, कछेरा- छोटा कच्छा।
गुरू गोविंद सिंह जी ने अपने जीवनकाल में धर्म की रक्षा हेतु कई युद्ध लड़े। उनके द्वारा लड़े गए प्रमुख युद्ध निम्नलिखित है:- भंगानी की लड़ाई (1688), नादौन का युद्ध (1691), गुलेर का युद्ध (1696), आनंदपुर की लड़ाई (1700), निर्मोह गढ़ की लड़ाई (1702), बसोली का युद्ध(1702), चमकौर का प्रथम युद्ध (1702), आनंदपुर की पहली लड़ाई (1704), आनंदपुर की दूसरी लड़ाई, सरसा की लड़ाई (1704), मुक्तसर की लड़ाई (1705),
गुरू गोविंद सिंह जी सिखों के गुरु और एक योद्धा होने के साथ साथ एक लेखक भी थे। उन्होंने कई रचनाएं लिखी तथा उन्होंने सिखों के महान धर्म “ग्रंथ गुरु ग्रंथ” साहिब का लेखन पूरा किया। इस ग्रंथ में उन्होंने सभी 10 गुरुओं की शिक्षा का संग्रहण किया।
उनकी और भी प्रमुख रचाएं निम्नलिखित है :-
जाप साहिब, विचित्र नाटक, चंडी चरित्र, शस्त्र नाम माला, खालसा महिमा, जफरनामा इत्यादि।
मुगलों के विरुद्ध अपने संघर्ष में गुरु गोविंद जी ने अपने चारों पुत्रों को खो दिया। उनके सबसे बड़े 2 पुत्र अजीत सिंह और जुझार सिंह चमकौर के युद्ध में शहीद हो गए।
उनके बाकी दो पुत्र फतेह सिंह और जोरावर सिंह को गुरु गोविंद सिंह की माता गुजरी देवी के साथ मुगल सिपाहियों ने पकड़ लिया था। उन्होंने गुजरी देवी को जेल में डाल दिया तथा दोनो साहबजादों को कई यातनाएं दी और उनका धर्म परिवर्तन करवाना चाहा पर वे नहीं माने जिसके कारण औरंगजेब ने उन्हें दीवार में चुनवा देने का आदेश दिया परंतु वे दोनो भाई ईंटों की दीवार में भी जिंदा बच गए जिसके बाद उनका सिर कलम कर दिया गया। अपने पोतों की मृत्यों की खबर सुन कर गुजरी देवी ने भी कारावास में अपने प्राण त्याग दिए।
और इस प्रकार गुरु गोविंद जी ने अपनी माता और अपने चारों पुत्रों को खो दिया।
मुक्तसर की लड़ाई के बाद गुरु गोविंद सिंह जी दक्षिण भारत चले गए थे जहां उन्हें यह पता चला की मुगल सम्राट औरंगजेब की मृत्यु हो गई है और उसके उत्तराधिकारियों के बीच सत्ता और सिंहासन के लिए युद्ध छिड़ गया है।
गुरू गोविंद सिंह जी की औरंगजेब के पुत्र बहादुर शाह जफर से अच्छी मित्रता थी। औरंगजेब गुरु गोविंद सिंह जी की अमृत वाणी भी सुनने आया करते थे। इसलिए गुरु गोविंद सिंह जी ने सिंघासन प्राप्त करने में उनकी सहायता की।
औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगलों के खिलाफ गुरु गोविंद सिंह जी का संघर्ष भी समाप्त हो गया।
औरंगजेब और गुरु गोविंद सिंह जी की मित्रता से सरहिंद के नवाब वजीर खां नाखुश थे और उसने गुरु गोविंद जी की हत्या का षडयंत्र बनाया। उसने अपने दो पठान हत्यारों जमशेद खान और वसील बेग को उनकी हत्या करने के लिए नांदेड़ भेजा। वहां उन दोनो ने गुरुगोविंद जी की निद्रा की अवस्था का लाभ उठाकर उन पर वार कर दिया और उनके हृदय के नीचे काफी गहरा ज़ख्म कर दिया। उसी समय गुरुजी ने अपनी तलवार से जमशेद खान की हत्या कर दी तथा वसीम बेग को वहां उपस्थित सिख अनुयायियों में मार डाला।
गुरू गोविंद जी की चोट का इलाज एक यूरोपियन सर्जन द्वारा करवाया गया परंतु कुछ दिनों के पश्चात चोट फिर से खुल गई और बोहोत ज्यादा रक्तस्राव बढ़ जाने से गुरु जी की हालत काफी बिगाड़ गई। गुरू गोविंद सिंह जी को यह अहसास हो गया था की उनका अंत समय आ चुका है इसीलिए उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के रूप में “गुरु ग्रंथ साहिब” को सिखों का अगला गुरु घोषित कर दिया।
7 अक्टूबर 1708 को नांदेड़ में गुरु गोविंद जी ने अपने प्राण त्याग दिए तथा वे दिव्य ज्योति में लीन हो गए।
गुरू गोविंद सिंह जी एक महत्मा थे। उन्होंने सदैव समाज के कल्याण और धर्म की रक्षा के लिए कार्य किए है। वे हमेशा दूसरों की सहायता करने की सिख देते थे। वे अपने प्रवचनों में कहा करते थे कि दूसरों को डराना तथा स्वयं डरना दोनो ही गलत बात है। उन्होंने मुगलों से संघर्ष में अपने पूरे परिवार को खो दिया और इसीलिए उन्हें “सर्ववंशदानी” भी कहा जाता है। इसके अलावा वे कलगीधर, दशमेश, बंजावाला इत्यादि उपनामों से प्रसिद्ध थे। उनके दरबार में 52 कवि तथा लेखक उपस्थित थे जिस कारण उन्हें “संत सिपाही” भी कहा जाता था।
उन्होंने बहुत छोटी सी उम्र में ही सिख समुदाय की जिम्मेदारियां उठाते हुए तथा अपने कौम का संचालन करके अपनी काबिलियत का प्रमाण प्रस्तुत कर दिया था। वे एक अच्छे नेता होने के साथ साथ एक कुशल योद्धा भी थे जिसने मुगलों के साथ बहादुरी से संघर्ष किया। वे गरीब लोगो के उत्थान के लिए हमेशा कार्यरत रहे और उनकी सहायता भी की। अपने प्रवचनों से वे हमेशा लोगो का मार्गदर्शन करते रहे है। गुरू गोविंद सिंह जी आज भी वंदनीय और पूजनीय है तथा आज भी उनके जन्म दिवस को “प्रकाश वर्ष” के रूप में मनाया जाता है। उनकी दी हुई शिक्षाएं आज भी लोगो का मार्गदर्शन कर रही है और आगे भी करती रहेंगी। इस महान दिव्यात्मा को शत शत नमन।
“वाहेगुरु जी दा खालसा, वहेगुरुजी दी फतेह।”
धन्यवाद।
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