वैष्णवो द्वारा जिन्हें श्री कृष्ण का अवतार माना जाता था, वह थे “चैतन्य महाप्रभु”। द्वापर युग में जन्मे श्री कृष्ण जी ने एक बार राधा जी ने कहा था कि “मेरी पीड़ा को समझने के लिए एक बार आप मेरी भांति अवतरित होकर मेरी पीड़ा को समझ कर देखिए”। उनकी बात मान कर ही श्री कृष्ण जी ने चैतन्य महाप्रभु जी के रूप में धरती पर जन्म लिया था। उस जीवन में उन्होंने बस भक्तों की सेवा करना ही अपना धर्म बना लिया था। जहां भी कोई भक्त दिखता, उन्हें वह प्रणाम कर लेते। उनके अनुसार भक्त वह होता है, जो कभी अपना धैर्य नहीं खोता, कभी क्रोधित नहीं होता तथा हमेशा शांत रहता है। यह होते हैं एक भक्त के गुण। जिन भक्तों में इस प्रकार के गुण ना हो वह भक्त, भक्त नहीं हो सकता, ऐसा चैतन्य महाप्रभु जी का मानना था।
उनके अनुसार मोक्ष पाने के कई रास्ते हैं जैसे ज्ञान अर्जित कर लो, भक्ति में पूर्ण रुप से लीन हो जाओ आदि।
हरे राम, हरे राम
राम राम, हरे हरे।
हरे कृष्ण, हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण, हरे हरे।।
”हरि का नाम बोलते रहो तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी।”
– चैतन्य महाप्रभु
वैष्णव धर्म को मानने वाले सभी विष्णु जी की पूजा में लीन रहते हैं और उन्हीं में से श्री चैतन्य महाप्रभु जी भी विष्णु भक्ति में लीन रहते थे, परंतु मान्यताओं के अनुसार वह स्वयं विष्णु अवतार थे।
कृष्ण चैतन्य जी का जन्म 18 फरवरी 1486 में पश्चिम बंगाल में नवद्वीप जिसे आज मायापुर कहां जाता है, में हुआ था। उनके जन्म के समय चंद्रग्रहण की अवधि चल रही थी। चंद्रग्रहण के इस शुभ अवसर पर जन्म लेकर विष्णु चैतन्य जी इस धरती पर आएं।
5 वर्ष की छोटी सी उम्र में ही उन्होंने सभी प्रकार के धर्म ज्ञान को अर्जित कर लिया था और तो और बंगाली भाषा तथा संस्कृत भाषा भी सिख ली थी एवं संपूर्ण रूप से बहुत ज्ञानी हो गए थे। सभी चकित हो गए थे कि एक 5 वर्ष का बच्चा इतना ज्ञान कैसे अर्जित कर सकता है? क्योंकि उन्होंने शास्त्रों पर भी अपनी पकड़ अच्छे से बना ली थी, पर इस पर उन्हें कभी घमंड नहीं हुआ।
कुछ ऐसे लोग भी थे जो घमंडी बन गए थे शास्त्रों के ज्ञाता बन कर। वैसे ही एक पंडित आए और उन्होंने चैतन्य महाप्रभु जी को चुनौती दी। उनके बीच शास्त्र को लेकर बहस छिड़ गई जिसमें चैतन्य महाप्रभु जी ने उस पंडित को हरा दिया और बाद में जब वह पंडित रात को सो रहा था तो सपने में माता लक्ष्मी जी आई और उन्होंने बताया कि “जिससे तुम शास्त्रों की लड़ाई लड़के आए हो वह और कोई नहीं भगवान श्री हरि विष्णु ही है”। यह जानते ही वह पंडित अगले ही सुबह चैतन्य महाप्रभु जी के चरणों में आकर गिर जाता है और उनके शरण में आ जाता है। इसके बाद ही उनको मानने वालों की संख्या बहुत अधिक हो जाती है।
इसके कुछ समय बाद ही वह लोगों को भक्ति का ज्ञान देने एवम् भक्ति का पाठ पढ़ाने लगते थे। पूरे विश्व में नंगे पांव चलकर उन्होंने विष्णु भक्ति का प्रचार किया था, विष्णु भक्ति का पाठ पढ़ाया था। ऐसा कहा जाता है कि जब उनका जन्म हुआ था तो लोग “हरि नाम” करते हुए शुद्धि की कामना करते हुए गंगा स्नान करने जा रहे थे।
चैतन्य महाप्रभु जी ने 1510 में संत प्रवर श्री पाद केशव भारती से संन्यास की दीक्षा लेकर सामाजिक सभी सुखों को त्याग कर सन्यासी जीवन को अपना लिया। उनके इस कर्म के बाद ही उनका नाम निमाई से कृष्ण चैतन्य हो गया था।
चैतन्य महाप्रभु जी ने अपने जीवन में अपने बारे में कुछ भी नहीं लिखा, परंतु उन्हें अपने 8 श्लोकों से अपने जीवन की संपूर्ण दी गई शिक्षा को लोगों को बताया, जिसे “शिक्षाष्टक” कहा जाता है।
कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जी के पिता का नाम जगन्नाथ मिश्रा और उनकी माता का नाम शची देवी था। कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की बचपन की एक घटना प्रचलित है। उनके भक्त बताते हैं कि बचपन में वह बहुत रोते थे तो 1 दिन उनकी मां ने उनसे कहा “हरि बोल” और चैतन्य महाप्रभु जी ने जब पहली बार कृष्ण का नाम सुना तो वह चुप हो गए। और तो और यह हरि नाम उनके दिमाग में बस गया और बहुत छोटे से उम्र में ही वह हरि भक्ति में लग गए थे।
ऐसा कहा जाता है कि चैतन्य महाप्रभु दिखने में बहुत सुंदर थे। उनको देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे। उनकी सखियां उनको देखते रह जाती थी। इसीलिए उनका नाम “गौर हरी” पड़ गया था। गौर का अर्थ “गोरा” होता है। चैतन्य महाप्रभु दिखने में बहुत अधिक सुंदर थे और उनको देखते ही भगवान श्री कृष्ण की याद आ जाती थी और तो और भक्तों के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि उनका जन्म नीम पेड़ के नीचे हुआ था इसलिए उन्हें “निमाई पंडित” भी कहा जाता है।
बाद में जब उन्होंने अपने चमत्कार दिखाना शुरू कर दिया तब उन्हें “कृष्ण चैतन्य महाप्रभु” के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त हुई।
हरे राम, हरे राम,
राम राम, हरे हरे।
हरे कृष्णा, हरे कृष्णा,
कृष्णा कृष्णा, हरे हरे।।
कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जी ने इस मंत्र को भक्तों को दिया और कृष्ण भक्ति में लीन होना सिखाया। वह कहते थे कि “कृष्ण का नाम लेते रहो मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी और जीवन जीने का सही लक्ष्य तुम्हें प्राप्त हो जाएगा”।
इस मंत्र से आत्मा परमात्मा से जुड़ जाती है।
चैतन्य महाप्रभु कृष्ण भक्ति में लीन होकर हरि का नाम लेते हुए कीर्तन करते थे और भक्ति में इतना डूब जाते थे कि वह रो भी देते थे। बड़ी कम उम्र में सन्यासी जीवन को अपनाकर उन्होंने जीवन की सबसे “भीष्म प्रतिज्ञा” ली थी। उनकी माता इससे बहुत दुखी थी क्योंकि सन्यासी जीवन आसान नहीं होता है परंतु एक समय के बाद गली-गली, शहर-शहर में कीर्तन करते हुए वह अन्य-अन्य जगहों में भी जाने लगे और हर एक स्थान पर जाकर उन्होंने भक्तों की सेवा की, उन्हें प्रणाम किया, उसका अतिथि सत्कार किया। सभी राजा महाराजाओं ने भी चैतन्य महाप्रभु की सेवा की क्योंकि वह सभी महाप्रभु को भगवान हरि के रूप में देखते थे।
ऐसा कहा जाता है कि एक समय में वृंदावन में श्री कृष्ण जी को पूजने के लिए 5000 मंदिर थे, परंतु समय के साथ-साथ वह लुप्त होते गए। चैतन्य महाप्रभुजी जब वहां पहुंचे शहर-शहर कीर्तन करते हुए तो उन्होंने एक-एक मंदिर को खोज निकाला था तथा ऐसा भी कहा जाता है कि भगवान कृष्ण की तलाश में वह वृंदावन के जंगल में भटकते रहते थे और इसी प्रकार भटकते हुए उन्होंने वृंदावन में छुपे उन सभी मंदिरों को खोजा था।
चैतन्य महाप्रभु जी ने अपने जीवन काल में यह शिक्षा दी थी कि कृष्ण ही आखरी सच्चाई है। इससे हमें जुड़ना होगा तब जाकर हम अपने आत्मा को परमात्मा से मिला पाएंगे। “हरि का नाम लेते रहना” जीवन इसी में है, यह मानना होगा। शिक्षा के रूप में तो उन्होंने मोक्ष की प्राप्ति के लिए कई उपदेश दिए थे परंतु उन सभी को एक बनाने का काम वह मंत्र करता है जो उन्होंने दिया था, जिसे “हरि मंत्र” कहा जाता है और उसके प्रयोग से हम इस मानव रूपी शरीर के द्वारा अपने परमात्मा से जुड़ जाएंगे, जिससे हम इस धरती पर आए हैं और जिसके हम अंश हैं।
इस माया जीवन में हम बंध कर परमात्मा को भूल जाते हैं जिस कारण से हम अपने जीवन के संपूर्ण लक्ष्य को भूल जाते हैं। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही श्री चैतन्य महाप्रभु जी ने कृष्ण मंत्र दिया था जिसकी सहायता से सभी माया से मुक्त होकर जीवन के लक्ष्य को समझकर कर्म योगी बनकर धर्म का निर्वहन करते हुए अपने आत्मा को परमात्मा से जोड़ लेंगे क्योंकि यही अंतिम सत्य है।
भविष्यवाणी की थी महाप्रभु जी ने कि कलयुग में जब मानव को अधर्म ही अधर्म दिखेगा और उसे धर्म के मार्ग पर चलने की चाह होगी तो उसे “हरि मंत्र” के साथ अपने जीवन को जोड़ना पड़ेगा। तब जाकर वह कलयुग में भी धर्म की स्थापना कर पाएगा। चैतन्य महाप्रभुजी ने इस भक्ति के कई रूपों में शिक्षा दी थी जिसमें उन्होंने कहा था कि “नाम जपो, हरि बोलो या ध्यान लगाओ या सभी के चरणों में गिरकर उनकी सेवा करो और सेवा को ही अपना परम धर्म बना लो, सभी कष्टों को हंसकर सह जाओ या पूजा करो या तो अपने आप को संपूर्ण रूप से श्री हरि के चरणों में न्योछावर कर दो”। तीन प्रकार से उन्होंने भक्ति की शिक्षा हमें दी थी।
चैतन्य महाप्रभु जी की मृत्यु को लेकर कई सारी बातें हैं क्योंकि किसी को सटीक रूप से यह पता नहीं कि उनकी मृत्यु कैसे हुई थी क्योंकि कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने अपने बहुत सारे दुश्मन बना लिए थे और उन्होंने ही उनको मार दिया होगा। कुछ लोग कहते हैं कि वह भक्ति में इतने लीन हो गए थे कि वह अदृश्य हो गये तथा कुछ लोगो का मानना है कि उन्हें कई प्रकार की बीमारी हो गई थी जिसकारण से उनकी मृत्यु हो गई।
इन सब के बावजूद जिसे अधिक मान्यताएं मिली है, उसके अनुसार 14 जून 1534 को उन्होंने महासमाधि ले ली थी।
चैतन्य महाप्रभु जी से सीख यह मिलती है कि माया रुपी संसार से अलग होकर कैसे हम अपने जीवन के असली लक्ष्य को समझकर आत्मा को परमात्मा से कैसे जोड़ सकते हैं और मोक्ष की प्राप्ति कैसे कर सकते हैं। चैतन्य महाप्रभु जी यह सीख देना चाहते थे कि हरि नाम में ही सब कुछ है।
इसलिए-
“हरे राम, हरे राम
राम राम, हरे हरे।
हरे कृष्ण, हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण, हरे हरे।।”
इस मंत्र के साथ हमें अपने आपको जोड़ लेना होगा।
धन्यवाद।
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