सब मिलाकर हजार से भी ज्यादा गोल दर्ज करने वाले, अपनी कला से खुद को “हॉकी का जादूगर” कहलाने वाले और कोई नहीं मेजर ध्यानचंद जी थे, जो अपने हर एक प्रतियोगिता में एक नया रिकॉर्ड अपने नाम कर लेते थे।
“सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा।।”
अंतर्राष्ट्रीय में:- 400 गोल
ओलंपिक में:- 35 गोल
पहली बार हॉकी खेलते हुए:- 3 गोल
हॉकी में “स्वर्ण पदक” जीत के ले आने वाला, देश को विश्व भर में अलग पहचान दिलवाने वाला, हॉकी की दुनिया में छा जाने वाला, मेजर ध्यानचंद जी जैसा एक सितारा बहुत ही कम देखने को मिला है।
अंग्रेजो के खिलाफ जीता हुआ वह “नामदेव हॉकी” ही था जिसे और कोई नहीं हम भारतवासी मेजर ध्यान चंद जी के कारण जीत पाए थे।
उनके कारण ही हॉकी हमारे देश का राष्ट्रीय खेल बना और उनके कारण ही हमारे देश को विश्वभर में एक अलग पहचान मिली। उनके कारण ही हम सर उठाकर अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेने के लिए आगे बढ़ पाए। जिस देश को गुलामी सहना पड़ रहा था, उसी देश के एक नौजवान ने ब्रिटिश हुकूमत की नींव को हिला के रख दिया।
मेजर ध्यानचंद जी का जन्म 29 जनवरी 1950 में इलाहाबाद में हुआ था। उनका जन्म एक राजपूत परिवार में हुआ था। समेश्वर दत्त सिंह उनके पिता तथा श्रद्धा सिंह उनकी माता का नाम था। मेजर ध्यानचंद जी को शुरू-शुरू में हॉकी में उतनी रुचि नहीं थी और उनके पिताजी फौज में थे, तो अपने पास के स्कूल से अपनी शिक्षा पूरी कर 16 वर्ष की उम्र तक उन्होंने फौज में काम किया। वहां भर्ती होते ही उनका धीरे-धीरे हॉकी के प्रति रुचि बढ़ने लगी, और वह चांदनी रात में हॉकी का अभ्यास करते रहते थे। इसी कारण उनका नाम उनके साथी सिपाहियों ने चंद्रा रख दिया था जो आगे जाकर उनके नाम से जुड़ कर ध्यानचंद बन गया। उनको सब मेजर ध्यानचंद कहकर पुकारने लगे।
अपने जीवन के शुरुआती दिनों में मेजर ध्यानचंद जी फौज की तरफ से हॉकी भी खेलते थे और इतनी अच्छी तरह खेलते थे कि उस कारण से उनका बहुत नाम होने लगा था। फौज में अच्छे प्रदर्शन के कारण ही उनका एक सिपाही से एक मेजर तक का सफर तय हो गया था। इसलिए उनके नाम के साथ मेजर भी जुड़ता है – “मेजर ध्यानचंद”।
किसी काम को ठीक से करना हो तो उसके लिए अधिक से अधिक अभ्यास करना चाहिए। इस तरह का विचार मेजर ध्यानचंद जी अपने मन में लिए हुए, बहुत छोटी सी उम्र में ही हॉकी को अपना सबकुछ मान कर रेल की पटरियों पर हॉकी की प्रैक्टिस किया करते थे और उसी में इतना डूबे रहते थे कि हॉकी की गेंद पर और हॉकी के बल्ले पर उनका एक अलग ही पकड़ बन गया था। जब वह खेलते थे तब उनसे बोल ले पाना कोई आम बात नहीं होती थी। हॉकी का गेंद मानो उनके बल्ले से ऐसे चिपका हुआ रहता था, जैसे उस बल्ले से कोई चुंबक लगा हो जो उस गेंद को अपनी ओर खींचे रखा है।
मेजर ध्यानचंद जी ने दिन-रात एक कर के हॉकी के उन सभी दांव-पेंचों को सीख लिया था जिससे वह आज के समय में सबके लिए पूजनीय बन गए हैं। चाहे रेलवे ट्रैक पर प्रैक्टिस हो या चांदनी रात में चांद के नीचे की गई तैयारी हो यह सारी उम्र की लगन से भरी हुई मेहनत थी, जिसने उन्हें एक ऐसा खिलाड़ी बना दिया, जिससे विश्वभर उन्हें “हॉकी का जादूगर” कहने लगा।
मेजर ध्यानचंद जी के खेल से सब लोग चकित रहते थे। सबको ऐसा लगता था कि मानो उन्होंने अपने हॉकी के छड़ी में चुंबक लगाया हो जिस कारण से हॉकी का गेंद बस उनके हॉकी के छड़ी से जुड़ा रहता हैं, वरना एक व्यक्ति इतनी देर तक अपने पास गेंद को कैसे रख सकता है, जब इतने खिलाड़ी उससे उस केंद्र को छीनने की कोशिश कर रहे हैं और वह गेंद मानो किसी के पास जाना चाहता ही नहीं है, बस मेजर ध्यानचंद जी के हॉकी के छड़ी से जुड़ा रहना चाहता है। इसी कारण से स्पीड मैच में कभी-कभी तो उनकी छड़ी की जांच पड़ताल की जाती थी। इस संदेह में कि कहीं उन्होंने अपने हॉकी के छड़ी पर चुंबक तो नहीं लगा रखा जिससे वह गेंद को अपनी हॉकी के छड़ी से हर बार जोड़े रखे हुए हैं। कई बार उनकी हॉकी की छड़ी को तोड़ा भी जाता था। कभी-कभी तो खेल को ही रोक दिया जाता था।
यह थी उनकी प्रतिभा जिस पर विश्वास कोई कर ही नहीं पाता था, इन्हीं कारणों के कारण उन्हें “हॉकी का जादूगर” कहा जाता था। जब वह खेलते थे तो मानो ऐसा लगता था, जैसे कोई जादूगर अपना खेल दिखा रहा है, जिसे देख सब चौक रहे हैं।
मेजर ध्यानचंद जी के खेल का प्रभाव पूरे विश्व भर में पढ़ने लगा था। चाहे वह क्रिकेट से कोई महान खिलाड़ी हो या सबसे बड़ा तानाशाह हिटलर हो, सभी उनके खेल से इतना ज्यादा प्रभावित हो गए थे कि सब उनसे मिलने आते थे एवं उनके इस प्रकार के प्रदर्शन कि वह सराहना करते थे।
शुरू-शुरू में कई लोग उनसे जलते भी थे, जिनमें हिटलर भी शामिल थे क्योंकि हिटलर के हॉकी टीम को मेजर ध्यानचंद जी ने इस प्रकार से धूल चटाया था, जिसे देख हिटलर बीच मैच में ही खेलकूद देखना छोड़ कर चले गए थे।
मेजर ध्यानचंद जी का प्रभाव इस तरह से फैला हुआ था कि उनके समय में कोई भी व्यक्ति किसी और खेल को देखता ही नहीं था। सब तन-मन से बस उनका ही प्रदर्शन देखने एवं उसका लुफ्त उठाने खेल के मैदान में आते थे। उनका प्रभाव मानो किसी आग की तरह हो जो उनके समय में बहुत जोर से फैला था और आज भी वह आग बुझी नहीं है। वही आग आज के युवाओं को एवं आने वाले युवाओं को भी प्रेरणा देगी।
अपने जीवन में पहली बार मेजर ध्यानचंद जी को 1926 में “अंतरराष्ट्रीय खेल” में उतारा गया और उन्होंने पहला मुकाबला अपना न्यूजीलैंड के खिलाफ खेला था। वह पल मेजर ध्यान चंद जी के लिए मानो सपने पूरे होने से कम नहीं था। इसके लिए वह दिन-रात एक कर के मेहनत करते थे।
अंतरराष्ट्रीय खेल में उनका नाम आखिरकार शामिल हो ही गया।
लंडन में हो रहे फेस्टिवल 1927 में मेजर ध्यानचंद जी ने “लंदन फोक फेस्टिवल” में ब्रिटिश लोगों के खिलाफ दस मैचों में 72 में से 36 गोल किए। इस प्रदशन से उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बना ली जिससे अन्य देश के लोग उनकी प्रतिभा से परिचित होने लगे थे। उस समय वह बात बहुत बड़ी थी जिस पर लोग भरोसा कर नहीं पा रहे थे।
1928 में समर ओलंपिक में उन्होंने 3 में से 2 गोल दागे थे और भारत को जीत दिलाई थी एवं विश्व भर में भारत देश के जीत का परचम लहराया था। इसी मुकाबले में भारत ने 3-0 हासिल करके स्वर्ण पदक जीता था और भारत को सुनहरा भविष्य दिलवाने का संकल्प लिया था।
1932 में लॉस एंजेलिस समर ओलंपिक में भारत ने एक ऐसा अविश्वसनीय कार्य कर दिया जिससे पूरा विश्व चौक उठा था। भारत में अमेरिकी टीम को 24-1 से धूल चटा कर गोल्ड मेडल जीता था। इससे भारत का सम्मान विश्व भर में होने लगा। उनकी प्रतिभा के सामने सब सर झुकाने लगे, सलाम करने लगे एवं उनके कला का लोहा मानने लगे। मेजर ध्यानचंद जी ने 338 में से 133 गोल मार कर अपनी एक अलग छवि बना ली थी। इससे ही विश्व को पता चल गया था कि भारत के पास “हॉकी का जादूगर” है।
मेजर ध्यानचंद जी उन लोगों में से आते हैं जिन्होंने तीन बार ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीता था। हमारे लिए गौरवशाली बात है कि हमारे पास हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद जी जैसे खिलाड़ी थे।
1948 के आते ही मेजर ध्यानचंद जी ने अंतरराष्ट्रीय हॉकी को अलविदा कह दिया था, पर वह अपने फौज की टीम से जुड़े हुए थे और उससे वह अपने हॉकी के खेल को जारी रखे थे। उनके जीवन में अगर कुछ महत्वपूर्ण था तो वह हॉकी था। हॉकी के लिए उनका प्रेम कभी खत्म नहीं हुआ इसलिए अंतरराष्ट्रीय खेल छोड़ने के बावजूद भी वह हॉकी से जुड़े हुए थे।
1956 में वह पल आया जब मेजर ध्यानचंद जी को भारत के तीसरे सबसे नामी सम्मान से नवाजा गया जिसके वे बहुत प्रबल दावेदार थे। उन्हें भारत सरकार द्वारा “पद्म भूषण” पुरस्कार प्रदान किया गया।
एक बार एक प्रतियोगिता में जब हिटलर की टीम को मेजर ध्यानचंद जी ने धूल चटाई थी जिससे गुस्सा होकर हिटलर ने मेजर ध्यानचंद जी को अपने पास बुलाया था। अगले ही दिन जब मेजर ध्यानचंद जी उनके पास गए तो हिटलर उन्हें सर से पांव तक अच्छी तरह देखने लगे और उनके फटे जूते की हालत को देखते हुए कहा – “मैं तुम्हें बहुत पैसे दूंगा, एक अच्छी जिंदगी दूंगा, ऐशो-आराम दूंगा, तुम मेरी टीम से खेलो और अपनी टीम को छोड़ दो। भारत तुम्हें क्या ही देता है, मैं तुम्हें वह सब कुछ दूंगा जिसके तुम हकदार हो और जिससे तुम्हारा जीवन बहुत ही आरामदायक होगा।”
यह सब सुनकर भी मेजर ध्यानचंद जी हिटलर के बातों में नहीं आए और उन्होंने कहा मेरे लिए मेरा देश महान है और आपके पैसों से बड़ा मेरे देश का सम्मान है। इन्हीं बातों के साथ उन्होंने हिटलर की बातों को ना सुनकर अपने देश का मान बढ़ाने के लिए भारत की ओर से बहुत सारे गौरवशाली जीत दर्ज किए।
हिटलर को उस प्रकार मना करना सबके बस की बात नहीं थी, पर मेजर ध्यान चंद जी जैसा देश भक्त अगर हो तो उसके लिए यह सब बातें मामूली ही होंगी। जिस समय हिटलर के खौफ से हर देश थर-थर कांपता था, उस हिटलर के मुंह पर ना बोल कर आए थे मेजर ध्यानचंद जी।
ऐसा समय आया जब हॉकी के जादूगर मृत्यु को प्राप्त हो गए। उनके अंतिम समय में ऐसा कहा जाता है कि जिस देश को उन्होंने विश्व भर में सम्मान दिलाया था, उसी मेजर ध्यानचंद जी के अंतिम समय में कोई उनकी आर्थिक सहायता करने नहीं आया था। इसी कारणवश वह जब बीमार पड़े तो आर्थिक स्थिति के ठीक ना होने के कारण वह मृत्यु को प्राप्त हो गए।
देश के हर खिलाड़ियों की यही समस्या है। वह देश को तो सब कुछ देते हैं एक खिलाड़ी के रूप में, परंतु जब उन्हें लोगों की सहायता की जरूरत पड़ती है तो कंधे से कंधा मिलाने वाला बहुत ही कम लोग आते हैं। यही कारण है कि आज के समय में भी स्वर्ण पदक लाना हमारे लिए कठिन है। हमारे देश में प्रतिभाशाली लोगों की कमी नहीं है। समस्या बस इतनी है कि कोई किसी का सगा बनना नहीं चाहता। बस वह खिलाड़ी जब तक उस खेल में अपने प्रदर्शन से देश का नाम कर रहा है, तब तक उस व्यक्ति के साथ आदर-सम्मान देकर व्यवहार किया जाएगा। उसके बाद ही उसका जीवन नर्क के समान बना दिया जाएगा।
यह एक कड़वा सच है जो हमारे देश में होते आ रहा है और इसी का शिकार मेजर ध्यानचंद भी हुए थे जिन्होंने उस समय देश का नाम उज्जवल किया था, जिस समय हमारा देश बदनामियों की बेड़ियों से बंधा हुआ था। कोई सहायता ना पाकर ही मेजर ध्यानचंद जी 3 दिसंबर 1979 को अपने प्यारे वतन को छोड़ स्वर्ग की ओर चले गए।
मेजर ध्यानचंद जी से अगर हम सीखने जाए तो यह सीखने मिलेगा कि देश को आबाद रखने के लिए जो खुद को मिटा दें इससे बड़ा देशभक्त कोई नहीं। ऐसे थे मेजर ध्यानचंद जी जिन्होंने अपनी परिस्थितियों से लड़कर देश को गौरवशाली बनाया एवं रेल के पटरी ऊपर हो या इधर-उधर हो वह अभ्यास इस प्रकार से करते थे कि मानो उनके लिए हॉकी ही सब कुछ था।
उनका अभ्यास इस प्रकार का था कि जब खेलते थे तो उनसे हॉकी का गेंद ले पाना मुश्किल होता था। यह उनका अभ्यास ही था जिससे कारण वे यह सब करने के काबिल बने उनके जैसा जादूगर हॉकी का होने के लिए जो मेहनत उन्होंने की वह सराहनीय है। हम युवाओं को उनसे यह प्रेरणा लेनी चाहिए कि जीवन में जो हमारा लक्ष्य है उसकी प्राप्ति के लिए अगर हम निरंतर प्रयास एवं निरंतर अभ्यास करते रहे तो ऐसी कोई भी समस्या, बाधाएं या रुकावट नहीं जिसको हम तोड़कर और हराकर आगे नहीं बढ़ सकते।
मेजर ध्यानचंद जी जैसा बनने के लिए अपने लक्ष्य के प्रति समर्पण की भावना होनी चाहिए तब जाकर सफलता हमारे कदम चूमेगी। जीवन में अभ्यास को ही सब कुछ बनाना होगा, तभी सफलता पाना आसान होगा। इस प्रकार की सोच मेजर ध्यानचंद जी की थी। अगर यह हम भी अपना ले तो सफलता हमें मिलकर रहेगी।
मेजर ध्यान चंद जी का जीवन हमें यह सिखाता है कि कामयाब बनना है तो वह करना है जो कोई नहीं करता। अपने लक्ष्य के प्रति श्रद्धा भाव के साथ विजय न प्राप्त करने तक निरंतर प्रयास करना ही सफल व्यक्तियों लक्षण है।
धन्यवाद।
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