एक लेखक का अर्थ होता है वह व्यक्ति जो अपनी लेखन कला द्वारा अपने विचार, अपनी संस्कृति, अपना इतिहास, अपनी परंपरा को समाज से समक्ष प्रस्तुत करता है।अपने लेखन कार्य के माध्यम से समाज को एक नई दिशा प्रदान करता है। एक लेखक का कार्य होता है अपने शब्दों के द्वारा अपनी बात को लोगों तक पहुंचाना और उन्हे जागृत करना।हमारी मातृभाषा हिंदी के श्रेष्ठतम कहानीकार और उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी ने भी अपनी लेखन कला के माध्यम से हिंदी भाषा के क्षेत्र में क्रांति ले आई थी तथा समाज में व्याप्त कुरीतियों, कुप्रथाओं और बुराइयों की खुल कर निंदा की जिससे समाज के नागरिकों में जागरूकता उत्पन्न हो और इन सामाजिक बुराइयों का नाश करके जनकल्याण और समाज के उत्थान की ओर का मार्ग प्रशस्त किया जा सके।
मुंशी प्रेमचंद जी हिंदी जगत के एक ऐसे रचनाकार है जिन्होंने हिंदी भाषा को उसका आधुनिक रूप प्रदान करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है तथा उनकी कृतियां आज भी लोगो को जीवन में आनेवाली कठिन परिस्थितियों का सामना करने की प्रेरणा देती है। वे न केवल एक लेखक थे बल्कि एक उत्कृष्ट रचनाकार, साहित्यकार, कहानीकार, तथा नाटककार थे जिन्होंने अपनी “कलम की शक्ति” से समाज में बदलाव लाने का प्रयत्न किया।
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी का जन्म बनारस के लमही नामक एक छोटे से गांव में 31 जुलाई 1880 में एक साधारण गरीब परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम अजायब राय था जो एक पोस्ट मास्टर थे तथा उनकी माता का नाम आनंदी देवी था। उनके दादाजी जिनका नाम गुरु सहाय राय था, एक पटवारी थे। मुंशी प्रेमचंद जी का वास्तविक नाम धनपत राय था। उन्होंने बचपन से ही संघर्षपूर्ण जीवन व्यतित किया तथा कई कठिनाइयों का सामना किया और इन सब के बाद भी अपने जीवन में सफलता अर्जित की।
हम जितने भी सफल और महान व्यक्तियों की जीवनी को देखते है, इन सभी में एक समानता नजर आती है वह है संघर्ष करना और कठिन परिस्थितियों के सामने हार न मानते हुए उनका डट कर सामना करना। उनका यही आत्म बल उनके जीवन हो महानतम बनाता है तथा सभी को यह सीख देता है की जीवन में आने वाली कठिन परिस्थितियां ही हमे मजबूत और गुणी बनाती है। जो व्यक्ति अपने जीवन में जितना अधिक घिसता है वह उतना ही प्रखर निखरता है। जीवन की विषम परिस्थितियां मनुष्य को बहुत कुछ सीखा जाती है।
मुंशी प्रेमचंद जी ने भी अपने जीवन में कई चुनौतियों का सामना किया। उन्होंने बचपन से ही काफी गरीबी में अपना जीवन व्यतीत किया।उनके पिता जो एक डाक मुंशी थे उनकी वेतन मात्र लगभग 25रुपए महीने थी प्रेमचंद जी ने केवल 8 वर्ष की अल्पायु में ही अपनी मां को खो दिया। किसी बीमारी के कारण उनकी मां की मृत्यु हो गई।एक बच्चे के लिए अपनी मां की ममता और उनके साथ का क्या महत्व होता है, इस बात से सभी अवगत है। बहुत छोटी सी उम्र में ही मुंशी प्रेमचंद जी के सर से अपनी मां के आंचल का साया उठ गया। प्रेमचंद जी के पिता की सरकारी नौकरी होने के कारण कुछ समय बाद उनका तबादला गौरखपुर में हो गया।वहा जाने के पश्चात उन्होंने दूसरा विवाह किया। प्रेमचंद जी की सौतली मां उन्हे कभी पूर्ण मन से अपना नहीं पाई और प्रेमचंद जी मां के प्यार से वंचित ही रहे। मुंशी प्रेमचंद जी ने अपनी कई रचनाओं में सौतेली माताओं का वर्णन किया है जिसके द्वारा हम उनके स्वयं के अनुभवों का अनुमान लगा सकते है।
जब वे 14 वर्ष के हुए तो उनके पिता का भी निधन हो गया ।पिता के निधन के बाद उन्हें अत्यधिक कष्टमय जीवन यापन करना पड़ा। उन्होंने अपने घर की जिम्मेदारियों का वहन करते हुए अपने अध्यन को पूरा किया। परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करने के साथ साथ अपने सपनों को भी पूरा किया और आगे चलकर हिंदी साहित्य के एक ऐसे प्रतिष्ठित छवि बनकर उभरे जिन्होंने हिंदी भाषा को एक नवीनतम रूप प्रदान करते हुए हिंदी लेखन की एक नई परंपरा का शुभारंभ किया जिसने आगे आने वाली पीढ़ियों के हिंदी भाषी रचनाकारों का मार्गदर्शन किया।
मुंशी प्रेमचंद जी ने अपनी शुरुआती शिक्षा एक स्थानीय मदरसे से प्राप्त की। वहा उन्होंने हिंदी और फारसी का ज्ञान प्राप्त किया साथ ही अंग्रेजी भी सीखी। उन्हे हिंदी विषय में बचपन से ही काफी रुचि थी। वे छोटे छोटे हिंदी के उपन्यास पढ़ा करते थे।उन्होंने अपनी इस रुचि के कारण एक पुस्तकों के थोक विक्रेता के दुकान में नौकरी भी की जहा वे काम के साथ साथ दिन भर पुस्तके भी पढ़ा करते थे। उन्होंने केवल 13 वर्ष की आयु में ही तिलिस्म -ए -होशरूबा पूरा पढ़ लिया था। इसके अलावा वे उर्दू के प्रसिद्ध रचनाकारों रतननाथ ‘शरसार’, मिर्जा हादी रुसवा, और मौलाना शरर के उपन्यासों का भी पठन कर चुके थे।
जब वे नौवीं कक्षा में थे तब उनके पिता ने उनका विवाह करवा दिया तथा उनके पिता की भी मृत्यु हो गई जिस कारण उनके ऊपर घर के खर्चों की जिम्मेदारी और अपने वैवाहिक जीवन का भार आ गया। उन्होंने काम करने के साथ अपनी पढ़ाई जारी रखी। परिवार के भरण – पोषण के लिए उन्होंने एक वकील के यहां नौकरी करनी शुरू की जहा वे 5 रुपए प्रति महीने वेतन पर काम करते थे। वे अपने पढ़ाई के खर्चों के लिए ट्यूशन भी पढ़ाया करते थे। इस प्रकार उन्होंने 1898 में अपनी मैट्रिक की परीक्षा पास की। मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद उन्हें एक स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिली।
उन्होंने नौकरी के साथ अपनी पढ़ाई जारी रखी और 1910 में अंग्रेजी, दर्शन, फारसी, और इतिहास विषय लेकर अपनी इंटर की पढ़ाई भी पूरी की। 1919 में उन्होंने अंग्रेजी,फारसी और इतिहास लेकर बी ए किया। जीवन के संघर्षों के साथ उन्होंने अपने बी ए तक की पढ़ाई पूरी की तथा इसके पश्चात उन्होंने शिक्षा विभाग के सब – डिप्टी इंस्पेक्टर के पद पर कार्य किया।
एक छात्र के रूप में प्रेमचंद जी का जीवन बहुत कुछ सिखाता है। वे उन सभी छात्रों और विद्यार्थियों के लिए प्रेरणापुंज है जो जीवन के अभावों के कारण और विषम परिस्थितियों के कारण अपनी शिक्षा पूरी करने में कठिनाइयों का सामना करते है। ऐसे अभावग्रस्त विद्यार्थियों को निरंतर संघर्ष करते रहने और अपना आत्मविश्वास बनाए रखने का साहस प्रदान करती है प्रेमचंद जी की कहानी।
मुंशी प्रेमचंद जी ने दो शादियां की थी। उनका पहला विवाह पुराने रीति रिवाजों के अनुसार कम उम्र में ही उनके पिताजी ने तय कर दिया जब वे 15 वर्ष की आयु के था।उनका विवाह बिना उनकी मर्जी जाने ही करवा दिया गया था ।परंतु उनका पहला विवाह सफल नहीं हो पाया।अपनी पहली पत्नी से उनका अलगाव हो गया।
प्रेमचंद जी आगे चलकर आर्यसमाज से जुड़े तथा उनके द्वारा शुरू किए गए विधवा – विवाह के अभियान को समर्थन प्रदान किया और इसी दौरान उन्होंने शिवरानी देवी नामक एक महिला जो एक बाल विधवा थी, से विवाह किया। उन्होंने 1906 में शिवरानी देवी से अपना दूसरा विवाह किया। शिवरानी देवी जी भी एक प्रसिद्ध लेखिका थी। उन दोनो की तीन संताने भी हुई जिनका नाम श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी था।
मुंशी प्रेमचंद जी को हिंदी तथा उर्दू दोनो भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। वे दोनो भाषाओं में लिखा करते थे। उन्होंने हिंदी भाषी रचनाओं में उर्दू भाषा के शब्दों का भी प्रयोग करना प्रारंभ किया। उनकी भाषा शैली बिलकुल सरल और सहज होती थी जिससे जन साधारण तक वे अपने लिखने के भावों को पहुंचा सके। उन्होंने अपनी रचनाओं में जनसाधारण के जीवन की कहानियों को प्रस्तुत करना आरंभ किया। समाज के दबे कुचले वर्गों की समस्याओं का प्रस्तुतिकरण किया जिससे सामान्य लोग भी उनकी रचनाओं से प्रभावित होने लगे। उन्होंने अपनी रचनाओं में “यथार्थवाद” का प्रारंभ किया।
उनकी पहली उपलब्ध रचना उर्दू उपन्यास है जिसका नाम है “असरारे महाविद”।
उनके साहित्यिक जीवन का शुभारंभ 1901 में हुआ परंतु उनकी हिंदी की पहली कहानी “सौत” 1915 में सुप्रसिद्ध हिंदी पत्रिका “सरस्वती पत्रिका” के दिसंबर के संस्करण में प्रकाशित हुई थी।
वे “नवाब राय” के नाम से अपनी उर्दू की रचनाएं लिखा करते थे। 1907 में उन्होंने अपना पहला कहानी संग्रह “सोजे वतन” प्रकाशित करवाया परंतु इसके प्रकाशन के बाद अंग्रेजी सरकार को ऐसा प्रतीत हुआ की वे अपने लेखन के माध्यम से लोगो को उनके खिलाफ भड़का रहे है और इसलिए उन्होंने उनकी रचना सोजे वतन की सारी प्रतियां जब्त कर ली तथा उनके लेखनों पर रोक लगा दी।
इस घटना के पश्चात उन्होंने प्रेमचंद नाम से लिखना प्रारंभ किया तथा इस नाम से उनकी पहली कहानी “बड़े घर की बेटी” जमाना नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई।
हिंदी कहानियां लिखने की शुरुआत उन्होंने 1915 में की तथा 1917 से हिंदी उपन्यास लिखना शुरू किया। उनके पहले हिंदी उपन्यास का नाम” सेवासदन” था।
उन्होंने कई कहानियां, उपन्यास और कविताओं की रचनाएं की। उनकी सरकारी नौकरी लगने के बाद लमही गांव से कानपुर तथा कानपुर से गौरखपूर में तबादल हुआ। इस बीच उन्होंने कई उत्कृष्ट कृतियों की रचनाएं तथा उनका प्रकाशन कराया। उनकी रचनाएं अत्यधिक लोकप्रिय होने लगी।
प्रेमचंद जी के हृदय में अपने देश के लिए भी प्रेम की भावना बसी थी।उन्होंने देशभक्ति पर भी कई कविताओं की रचनाएं लिखी। वे महत्मा गांधी काफी प्रभावित थे। 1921 में महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन का उन्होंने समर्थन किया तथा अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी तथा बनारस आकर केवल अपने लेखन कार्य में ही लग गए।
नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने कुछ समय तक “मर्यादा” नामक पत्रिका का संपादन किया तथा उसके पश्चात 6 साल तक उन्होंने “माधुरी” नामक पत्रिका का संपादन किया और अपने साहित्यिक कार्यों में लगे रहे।
बनारस आने के बाद उन्होंने 1930 में “हंस” नामक पत्रिका का संपादन किया जो उनकी पहली पत्रिका थी। 1932 में उन्होंने “जागरण” नामक एक साप्ताहिक पत्रिका भी शुरू की। 1936 में उन्होंने लखनऊ में आयोजित “अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ” के सम्मेलन समारोह की अध्यक्षता भी की।
पत्र पत्रिकाओं के संपादन तथा लेखन के अलावा उन्होंने सिनेमा के लिए कथाकार का भी कार्य प्रारंभ किया। वे इस कार्य के लिए मुंबई गए तथा वहा उन्होंने मोहन दयाराम भवनानी की “अजंता सीनेटोन कंपनी” में फिल्मों के लिए कथा लिखने का काम शुरू किया।उन्होंने 1934 में प्रकाशित हुई फिल्म “मजदूर” की कथा का लेखन किया था। परंतु उन्हे मुंबई का माहौल भाया नहीं तथा वे वहा काम नहीं कर पाए इसलिए वे बनारस वापस आ गए तथा दुबारा अपने लेखन कार्यों में लग गए। उनकी अंतिम कहानी “कफन” 1936 में प्रकाशित हुई।
मुंशी प्रेमचंद जी की तैंतीस वर्षों की साहित्यिक जीवन यात्रा के दौरान उन्होंने ऐसे उत्कृष्ट रचनाएं की है जो हिंदी साहित्य की धरोहर है।
• कहानियां – पंच परमेश्वर, दो बैलों को कथा, पूस की रात, ठाकुर का कुआं, बूढ़ी काकी, दूध का दाम इत्यादि।
• कहानी संग्रह – सोजे वतन,सप्त सरोज,नव निधि, प्रेम पूर्णिमा, प्रेम पचीसी, समरयात्रा इत्यादि।
• उपन्यास – रंगभूमि, निर्मला,गोदान, गबन,कर्मभूमि ,इत्यादि।
• नाटक – संग्राम, कर्बला, प्रेम की वेदी।
•निबंध – साहित्य का उद्देश्य,पुराना जमाना नया जमाना, स्वराज के फायदे इत्यादि।
मुंशी प्रेमचंद जी का निधन 8 अक्टूबर 1936 को निरंतर तबियत खराब होने के कारण हुई।
•प्रेमचंद जी की लेखन कला से प्रभावित होकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरत चंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हे “उपन्यास सम्राट” की उपाधि प्रदान की।
•उनके पुत्र अमृत राय ने उन्हे “कलम का सिपाही” की उपाधि दी।
•उनकी पत्नी ने अपनी मृत्यु के उपरांत उनके सम्मान में “प्रेमचंद घर में ” नामक रचना की।
•डॉ कमल किशोर गोयनका ने उनकी मृत्यु के बाद उनके हिंदी उर्दू कहानियों को संग्रहित करके “प्रेम चंद कहानी रचनावली” नाम से प्रकाशित कराया।
•उनकी रंगभूमि उपन्यास के लिए उन्हे मंगलप्रसाद पारितोषिक से भी सम्मानित किया गया था।
•हिंदी साहित्य के इतिहास में 1918 से 1936 तक के कालखंड को “प्रेमचंद युग” के नाम से जाना जाता है।
• मुंशी प्रेमचंद जी के सम्मान में भारतीय डाक तार विभाग ने 30 पैसे मूल्य का डाक टिकट जारी किया था।
गोरखपुर के जिस विद्यालय में वे अध्यापक का कार्य करते थे वहा प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई।
मुंशी प्रेमचंद हिंदी साहित्य जगत का एक ऐसा नाम है जो आज भी अमर है तथा उनकी कृतियां कालजयी है। अपनी लेखन कला के माध्यम से उन्होंने सभी के हृदय में एक अमिट छाप छोड़ी है। संघर्षमयी जीवन यापन करते हुए भी उन्होंने अपने जीवन में अत्यधिक प्रसिद्धि अर्जित की। अपनी प्रगति वादी सोच को उन्होंने अपने रचनाओं में उकेरा तथा समाज तक अपना संदेश पहुंचाया और लोगो का प्रेम भी पाया। उनकी महत्ता हिंदी के लेखन क्षेत्र में अद्वितीय है। आगे आने वाली कई पीढ़ियों ने उनकी रचनाओं को अपना मार्गदर्शक माना।
वे हिंदी साहित्य के क्षेत्र में मील के पत्थर माने जाते है और हमेशा माने जाते रहेंगे। उन्होंने समाज को “कलम की ताकत” का परिचय दिया। उनकी रचनाओं जितनी प्रसिद्धि अपने समय में अर्जित की, उनका महत्व और प्रभाव आज भी वैसा ही है। उनकी रचनाएं पाठकों के मन को आज भी उतनी की गहराई से मोहित कर जाती है और आगे भी उन्हे तथा उनके रचनाओं को इतना ही सम्मान और प्रेम मिलता रहेगा।
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