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चंद्रशेखर वेंकट रमण: भारतीय भौतिक विज्ञान के महान वैज्ञानिक

विज्ञान एक ऐसा विषय है जो प्रकृति में उपस्थित प्रत्येक वस्तु की क्रमबद्ध जानकारी प्रदान करता है तथा प्रकृति में होने वाले सभी घटनाओं का उचित कारण बताता है। विज्ञान के तथ्यों का अध्ययन करके वैज्ञानिकों ने ऐसी-ऐसी खोजें की हैं जिनके द्वारा कई अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर मिले। मानव की हर जिज्ञासा का उत्तर बना है विज्ञान। दुनिया भर के वैज्ञानिक अपने ज्ञान का उपयोग करते हुए विज्ञान के क्षेत्र में नए-नए शोध करते ताकि इस सृष्टि के विषय में अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त हो एवम् उस ज्ञान का उपयोग करके मानव अपने जीवन को और आसान तथा उपयोगी बना सके। भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य करने वाले एक महानतम भारतीय वैज्ञानिक हैं चंद्रशेखर वेंकट रमण। उन्होंने अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति और अपने ज्ञान की लालसा की तृप्ति हेतु भौतिक विज्ञान के विषय में उत्कृष्ट कार्य किया तथा अपने कार्य के लिए सम्मानित भी हुए। अपने शोध कार्य के लिए वे न केवल भारत में विख्यात हैं बल्कि पूरी दुनिया में उनका नाम जाना जाता है।

जन्म और प्रारंभिक जीवन

चंद्रशेखर वेंकट रमण जी का जन्म 7 नवंबर 1888 को भारत के तमिलनाडु राज्य में कावेरी नदी के किनारे स्थित तिरुचिरापल्ली में एक सुसंपन्न परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम आर. चंद्रशेखर अय्यर था जो एक शिक्षक थे। उनकी माता का नाम पार्वती था। चंद्रशेखर जी के विद्वता के लक्षण बचपन से ही लक्षित होते थे। वे बाल्यकाल से ही प्रवीण बुद्धिशाली एवं मेधावी बालक थे। उनमें सीखने की तीव्र इच्छा तथा जिज्ञासा समाहित थी। उनके पिता पहले एक विद्यालय में प्राध्यापक थे और बाद में विशाखापत्तनम विश्वविद्यालय में गणित और भौतिक विज्ञान के लेक्चरर बन गए थे। उनके पिता के शिक्षक होने के कारण चंद्रशेखर जी को भी घर में पठन-पाठन का बहुत ही अच्छा माहौल प्राप्त हुआ। उनके पिता को भी ज्ञानवर्धन में अत्यधिक रुचि थी, जिस कारण उन्होंने अपने घर पर ही एक छोटे से पुस्तकालय का निर्माण कर रखा था जिसमें संस्कृत, अंग्रेजी साहित्य, संगीत, विज्ञान इत्यादि की पुस्तके रखी हुई थीं। चंद्रशेखर जी को इसका काफी लाभ प्राप्त हुआ और उन्हे अपने रुचिकर कार्य अध्यन में भी सहायता मिली। उनके पिता एक संगीत प्रेमी भी थे तथा वे वीणावादन किया करते थे। चंद्रशेखर जी इससे भी काफी प्रभावित हुए।

शिक्षा

चंद्रशेखर जी की प्रारंभिक शिक्षा विशाखापत्तनम में ही हुई। वे इतने मेधावी छात्र थे कि उन्होंने केवल 11 वर्ष की अल्पायु में ही अपनी मैट्रिक की परीक्षा को उत्तीर्ण कर ली थी। वे अपने विद्यालय में हर कक्षा में प्रथम स्थान से उत्तीर्ण होते थे। उन्होंने 1903 में चेन्नई के प्रेसिडेंसी कॉलेज में अपनी बी.ए. की पढ़ाई के लिए दाखिला लिया तथा 1905 में वे प्रथम श्रेणी से पास होने वाले एक मात्र छात्र थे। उन्हें इसके लिए स्वर्ण पदक से भी सम्मानित किया गया। उन्होंने अपनी एम.ए. की पढ़ाई भी प्रेसिडेंसी कॉलेज से ही की। वे एम.ए. की पढ़ाई के दौरान अपनी कक्षाओं में ज्यादा उपस्थित न होकर प्रयोगशाला में शोध किया करते थे। वे अपने प्रोफेसर आर.एस. जोन्स के एक उपकरण जिसका नाम “फेबरी पिराट इंटरफेरोमीटर” था, का उपयोग करके प्रकाश की किरणों को नापने का कार्य किया करते थे। उनके प्रोफेसर के कहने पर उन्होंने अपने शोधकार्य के पत्रों को लंदन की प्रसिद्ध पत्रिका “फिलोसॉफिकल पत्रिका” को भेजा जो उस पत्रिका के नवंबर के अंक में प्रकाशित हुए। उस समय वे 18 वर्ष के थे तथा इसे विज्ञान के क्षेत्र में उनके पहले योगदान के रूप में देखा जाता है। उन्होंने 1907 में अपनी एम.ए. की पढ़ाई पूरी की तथा अपने पूरे विश्वविद्यालय में सर्वाधिक अंक प्राप्त किए।

भारतीय लेखा सेवा में नियुक्ति

उन्होंने भारतीय लेखा सेवा (IAAS) में कार्य करने के लिए प्रतियोगी परीक्षा में भी हिस्सा लिया तथा प्रथम स्थान प्राप्त किया। उन्हें यह सरकारी नौकरी प्राप्त हो गई तथा उन्हें अच्छा वेतन भी प्राप्त होने लगा।

वैवाहिक जीवन

चंद्रशेखर वेंकट रमण जी का विवाह 6 मई 1907 को कृष्णस्वामी अय्यर जी की पुत्री त्रिलोकसुंदरी से संपन्न हुआ। उनकी पत्नी ने अपने पति का कदम पर कदम पर साथ निभाया है। भारतीय लेखा सेवा में नौकरी प्राप्त करने के बाद रमण जी ने अपने सरकारी बंगले में ही एक छोटी से प्रयोगशाला बना ली थी तथा उसमें भी अपने कार्य किया करते। अपने पति के कार्यों में त्रिलोकसुंदरी जी भी सहयोग किया करती। काम के दौरान उनकी सारी जरूरतों का ध्यान रखा तथा उनकी सेवा जतन किया करती थी। अपनी पत्नी के सहयोग के कारण रमण जी मन लगाकर अपने शोध कार्यों को करते थे। रमण जी के सफलता में उनकी पत्नी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने एक अच्छे जीवनसाथी के सभी कर्तव्यों का पालन बहुत ही अच्छे से किया।

विज्ञान के शोध कार्य

चंद्रशेखर वेंकट रमण विज्ञान के क्षेत्र में एक बहुत बड़ा और सम्मानित नाम है। उन्होंने अपनी मेहनत से यह ख्याति अर्जित की है। भौतिक विज्ञान के विषय में उन्हें पहले से अत्यधिक रुचि थी। वे अपने वातावरण की घटनाओं को लेकर काफी जिज्ञासु रहे। जब वे एक विद्यालय के छात्र थे तो वे अपनी कक्षा की खिड़की से अक्सर आकाश और समुद्र के नीले रंग को देखा करते थे तथा उनके विषय में जानने के लिए ललायित रहते थे। अपनी एम.ए. की पढ़ाई के दौरान उन्होंने इस विषय पर शोध भी किए तथा उनके शोधपत्र लंदन की पत्रिका में प्रकाशित भी हुए। यह विज्ञान के क्षेत्र में उनका पहला योगदान था। वे अपने आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड नहीं जा पाए क्योंकि डॉक्टर के अनुसार उनकी तबियत नाजुक थी जो इंग्लैंड की जलवायु में रहने योग्य नहीं थी। इसलिए उन्होंने यहीं रहकर अपना कार्य जारी रखा। रमण ने अपना दूसरा शोध पत्र लंदन की एक अन्य प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पत्रिका “नेचर” को भेजा।

इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन ऑफ़ साइंस

रमन कोलकाता में सहायक लेखापाल के रूप में कार्य कर रहे थे परंतु उनका मन अपने विज्ञान के शोध कार्यों को न कर पाने के कारण अशांत रहा करता था। उन्होंने कोलकाता में स्थित “इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन ऑफ़ साइंस” के परिषद में बने प्रयोगशाला की सहायता ली तथा वहाँ के सदस्यों की अनुमति प्राप्त करके वहाँ की प्रयोगशाला के उपकरणों के माध्यम से वे अपने कार्य किया करते। वे सुबह 5 बजे ही उठकर प्रयोगशाला चले जाया करते तथा पौने दस बजे घर आकर अपने दफ्तर के लिए तैयार होकर काम पर जाते। काम से आने के बाद भी वे 5 बजे से रात के 10 बजे तक वहीं रहकर कार्य किया करते थे। उन्हें अपने शोध कार्यों के लिए एक उत्तम स्थान प्राप्त हो गया था। उस समय वे संगीत के वाद्य यंत्रों पर कार्य कर रहे थे। उन्हें परिषद के सदस्यों की भी सहायता प्राप्त हुई। वे धीरे-धीरे उस परिषद के सभाओं में भी हिस्सा लेने लगे और विज्ञान के विषय में भाषण देना भी प्रारंभ किया।

विदेश यात्रा और नई खोजें

1917 में लंदन में आयोजित ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के विश्वविद्यालयों के सम्मेलन में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया। इस सिलसिले में वे पहली बार विदेश गए। उन्होंने समुद्री मार्ग से होते हुए यात्रा की। उनकी ये यात्रा उनके लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण रही तथा उनके जीवन में कई सारे नए तथ्यों को लेकर आई। अपनी यात्रा के दौरान समुद्र और आकाश का नीला रंग उन्हें आकर्षित कर गया तथा नए अनुसंधान के लिए प्रेरित किया। उन्होंने समुद्र के जल का परीक्षण किया तथा उस पर कार्य किया।

रमन प्रभाव

रमन ने समुद्र के जल के कणों का परीक्षण किया तथा यह पता लगाया कि समुद्र का नीलापन आकाश के नीले रंग का प्रतिबिंब नहीं है। समुद्र पर जब सूर्य का प्रकाश पड़ता है, तो जल के अणु प्रकाश किरणों में उपस्थित नीले रंग को बिखेर देते हैं, जिस कारण समुद्र का रंग नीला दिखाई पड़ता है। इस खोज के लिए उन्होंने कई प्रयोग तथा नए अध्ययन किए जैसे लेंस, द्रव, तथा गैसों के विषय में। उनकी इस खोज के पश्चात वे अत्यधिक विख्यात हो गए। उन्होंने “ऑप्टिक्स” नामक विषय में अपने योगदान दिए तथा उत्कृष्ट कार्य किए। 1924 में उन्हें लंदन के “रॉयल सोसायटी” की सदस्यता भी प्राप्त हुई, जो एक वैज्ञानिक के लिए बहुत ही गौरव की बात थी।

“रमन इफैक्ट” की खोज

एक समय चंद्रशेखर जी अपने कुछ छात्रों के साथ द्रव के कणों द्वारा प्रकाश के रंगों को बिखेरने के विषय पर कार्य कर रहे थे। इस समय उन्हें अपने प्रयोग के दौरान द्रव द्वारा बिखेरे गए प्रकाश के किरणों के बीच कुछ अन्य किरणें भी दिखाई देने लगीं। उन्होंने इन किरणों के विषय में जानने के लिए कई शोध किए। अंततः उन्होंने इस विषय में अपनी खोज पूरी कर ली तथा यह भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में एक बहुत बड़ी खोज थी। उन किरणों को “रमन किरणें” तथा उस घटना को “रमन प्रभाव” का नाम दिया और अपनी इस खोज के विषय में 29 फरवरी 1928 को ब्रिटिश प्रेस में जानकारी दे दी। इसके पश्चात विश्व भर के वैज्ञानिकों द्वारा इस नई खोज की पुष्टि हेतु कार्य होने लगा तथा जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी, अमेरिका के आर डबल्यू वुड ने सर्वप्रथम इसकी पुष्टि की। उनकी यह खोज एक भारतीय वैज्ञानिक के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी क्योंकि उस समय ब्रिटिश भारत में भौतिक विज्ञान अपने शुरुआती दौर में था। ऐसे में एक ऐसी खोज ने विज्ञान के अध्ययन को एक नई गति और दिशा प्रदान की। चूंकि इस खोज को पूर्णतः रूप से 28 फरवरी 1928 को पूरा किया गया था, इस कारण वेंकट रमण जी के सम्मान में इस दिन को भारत में राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस खोज के लिए उन्हें 1930 में नोबल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

रमण रिसर्च इंस्टीट्यूट

चंद्रशेखर वेंकट रमण जी ने 1948 में बेंगलुरु में अपना स्वतंत्र अनुसंधान केंद्र खोला जिसे रमण रिसर्च इंस्टीट्यूट के नाम से जाना जाता है। वे इस संस्थान में ही अपने कार्य किया करते थे। उन्होंने हीरो के अंतरिक संरचना के विषय में अध्ययन किया। फूलों, पक्षियों और तितलियों के पंखों के रंग-बिरंगे रूप ने भी उन्हें आकर्षित किया। उन्होंने इस विषय में भी अध्ययन किया तथा “विजन और कलर का सिद्धांत” भी प्रतिपादित किया। उनके इस सिद्धांत को उन्होंने अपनी पुस्तक “द फिजियोलॉजी ऑफ़ विजन” में प्रकाशित किया। उन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में कई कार्य किए तथा पूरे विश्व को यह बता दिया कि सस्ते उपकरणों का प्रयोग करके भी यदि लगन हो तो बड़े-बड़े खोज किए जा सकते हैं।

विज्ञान के प्रति उनका प्रेम

चंद्रशेखर रमण जी भारत में विज्ञान के विकास के लिए कार्य करना चाहते थे। 1947 में कई युवा वैज्ञानिकों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु विदेश भेजा जाने लगा, परंतु वे इससे नाखुश थे। उन्होंने भारत के वैज्ञानिकों को यह बताया कि उन्हें अपने कार्य के लिए विदेशी डिग्रियों को बहुत अधिक महत्ता नहीं देनी चाहिए। इसके लिए उन्होंने अपनी लंदन की “रॉयल सोसायटी” की सदस्यता भी छोड़ दी। उन्हें भारत के उपराष्ट्रपति के पद के लिए प्रस्ताव भी आया था पर उन्होंने अस्वीकार कर दिया। वे राजनीति में हिस्सा भी नहीं लेना चाहते थे। उन्हें 1954 में “भारत रत्न” से सम्मानित किया गया तथा वे ये सम्मान अर्जित करने वाले पहले और आखिरी वैज्ञानिक थे।

उनका निधन

चंद्रशेखर वेंकट रमण जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन विज्ञान के प्रति समर्पित कर दिया। परंतु 21 नवंबर 1970 के दिन एक बीमारी के कारण उनका निधन हो गया। 82 वर्ष की आयु में उन्होंने इस संसार को अलविदा कह दिया।

निष्कर्ष

चंद्रशेखर वेंकट रमण जी जिन्होंने भारत में ही रहकर कम साधनों और सुविधाओं में कार्य करके, कई कठिन परिस्थितियों से जूझते हुए अपने कार्यों को पूरी लगन के साथ संपन्न किया तथा भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य का प्रदर्शन कर विश्व में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। उन्होंने अपने कार्यों के लिए विश्व का श्रेष्ठ सम्मान नोबल पुरस्कार तथा भारत का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न अर्जित किया। विज्ञान के क्षेत्र में उनकी देन विज्ञान के इतिहास में एक उत्कृष्ट कार्यों में गिना जाता है तथा उनके लिए वे सदैव स्मरणीय रहेंगे। उनकी जीवनी यह सीख देती है कि यदि हमारे भीतर जानने और सीखने की इच्छा हो तो हम बड़े से बड़ा कार्य कर सकते हैं। उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण तथा अपने कार्य के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भावना के कारण उन्होंने अपने जीवन को सफल बना लिया तथा पूरे विश्व में ख्याति अर्जित की और सभी के लिए एक प्रेरणा का स्रोत बने। उन्होंने अपने कार्यों से अपने भारत देश का नाम भी ऊंचा किया तथा विश्व में एक नई पहचान दिलाने में अपना योगदान दिया। वे हमें यह शिक्षा देते हैं कि अपने सपनों के लिए कार्य करना चाहिए तथा अपने देश के और स्वयं के विकास को सफल बनाना चाहिए।

Nikhil Jain

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