कबीर जी के दोहे (Kabir Ji Ke Dohe) 1

राम नाम के पटंतरै, देबे को कछू नाहिं। 

क्या लै गुर संतोखिए, होंस रही मन माहीं।।
अर्थ : कबीर जी  कहते है की राम नाम की बराबरी में मेरे पास अपने गुरु को देने के लिए कुछ  है , अर्थात राम नाम की जो सीख  उनको उनके गुरु  ने दी है ,उसकी बराबरी में मेरे पास उन्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है।  क्या लेकर वह गुरु के पास जाये अर्थात दक्षिणा में वे अपने गुरु को क्या दे जिससे उनको संतुष्ट किया जाये , यह विचार उनके मन में बने ही रहे और पुरे न हुए। 

सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार।
लोचन अनंत उघारिया, अनंत दिखवणहार।।
 
अर्थ: सतगुरु की महिमा अनंत है और उन्होंने मुझ पर अनंत उपकार किये है।  उन्होंने मेरे अनंत नेत्र खोल दिए है और अब  मैं अनंत के दर्शन कर सकता हूँ  अर्थात उन्होंने मेरे नेत्रों को  ज्ञान की अनंत जोत प्रदान की है जिससे मैं प्रभु के दर्शन कर सकता हूँ।
मेरा मुझमैं  कछु नाही, जो कछु है सो तेरा।
तेरा तुझको सौंपता, क्या लागै  मेरा।। 
अर्थ : कबीर जी कहते है कि मेरा मुझ में कुछ भी नहीं है जो कुछ है वो सब तेरा है अर्थात सब कुछ प्रभु का ही है। अगर प्रभु का सब कुछ प्रभु को दे दें तो फिर मेरा क्या रह जाएगा ?
अपने इस दोहे में कबीर जी ने परमात्मा के प्रति अपने पूर्ण आत्मसमर्पण को दर्शाया है तथा मनुष्य के अहंकार पर भी ताना कसा है कि वो जो भी  अपना अपना करता है असल में उसका कुछ भी नहीं है।