पृथ्वीराज चौहान जीवनी(Prithviraj Chauhan Biography in Hindi)

परिचय :-

भारतीय उपमहाद्वीप में छठी शताब्दी में कई राजपूत वंशों का उदय हुआ जिन्होंने उपमहाद्वीप के अलग अलग क्षेत्रों में शासन किया। इन्ही राजपूत परिवारों में से एक था “चौहान वंश” जो वर्तमान भारत के राजस्थान तथा उसके आसपास के क्षेत्रों में छठी से बारहवीं शताब्दी तक शासन करता था । चौहान वंश अपने साहस और शौर्य के लिए जाना जाता था। इसी चौहान वंश के एक शासक जिन्होंने अपने वंश के मान-सम्मान और यश को उच्चतम स्तर तक बढ़ाया तथा अपने साम्राज्य का भी विस्तार किया, वे थे ऐतिहासिक चौहान सम्राट “पृथ्वीराज चौहान”। वे इतिहास के एक ऐसे अविस्मरणीय पात्र के रूप में देखे जाते है जिन्होंने भारत के पूरे भविष्य को ही बदल कर रख दिया। उनके वीरता और साहस के किस्सों से भारतीय इतिहास के पन्ने भरे पड़े है परंतु उनकी छोटी से भूल के कारण भारत का संपूर्ण इतिहास एक अलग दिशा की ओर पलट गया। उन्होंने विदेशी शक्तियों के साथ युद्ध करके भारत की रक्षा की तथा उन्हे दिल्ली पर शासन करने वाले “अंतिम स्वतन्त्र भारतीय शासक” माना जाता है।

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उनके बारे में जानकारी देने वाले स्रोत:-

पृथ्वीराज चौहान की जीवन गाथा भारतीय इतिहास का एक अभिन्न और महत्वपूर्ण भाग है। इतिहासकारों ने उनके समय की जानकारी देने वाले विभिन्न साहित्यिक एवम् पुरातात्विक स्त्रोतों का विश्लेषण करके ही उनके जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियां प्रदान की है। प्राप्त जानकारियों की सत्यता की जांच एवम् पुष्टि करने के बाद ही इतिहासकार उन्हें इतिहासलेखन में प्रयोग करते हैं क्योंकि बहुत से स्त्रोतों में तत्कालीन लेखकों द्वारा किन्ही कारणवश अतिश्योक्ति भी कर दी जाती थी जो इतिहास के पुनर्निर्माण के कार्य में इतिहासकारों के लिए बाधा उत्पन्न करते है और भूतकाल में घटे घटनाओं तथा उनसे जुड़े तथ्यों की सत्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा देते है। अतः बहुत ही सावधानी और ध्यानपूर्वक उपलब्ध जानकारियों का विश्लेषण करके एवम् कई वर्षों तक शोध करके इतिहास निर्माता ऐतिहासिक पत्रों के जीवन गाथा को लिखते है और उसे इतिहास का एक भाग बना देते है।

पृथ्वीराज चौहान जी के जीवन के विषय में निम्नलिखित स्रोतों से जानकारी प्राप्त होती है :-

•पृथ्वीराज जी के राज दरबार में उपस्थित एक श्रेष्ठ कविवर जिनका नाम चंदबरदाई था, के द्वारा रचित ऐतिहासिक कृति “पृथ्वीराज रासो” जो उन्होंने 16 वीं शताब्दी में ब्रजभाषा में लिखी थी, पृथ्वीराज चौहान के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण जानकारियां प्रदान करती है। इसके अलावा –

  • प्रबंध चिंतामणि
    •प्रबंध कोषा
    •पृथ्वीराज प्रबंध
    •पृथ्वीराज विजय
    •हम्मीर महाकाव्य
  • तराइन के युद्ध से जुड़े मुस्लिम लेखकों के संस्मरण
    इत्यादि जैसे साहित्यिक स्त्रोत उनके जीवन के बारे में जानकारियां उपलब्ध कराते है।
    •बादला अभिलेख, 1177 ईस्वी
    •मदनपुर अभिलेख, 1182 ईसवी
    •उदयपुर अभिलेख, 1187ईसवी
    इन अभिलेखों से भी महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त होती है।

जन्म :-

पृथ्वीराज चौहान जिन्हें “पृथ्वीराज तृतीय” और “राय पिथोरा” के नाम से भी जाना जाता है वे भारत के मध्यकालीन चौहान वंश में जन्मे एक पराक्रमी वीर योद्धा थे। उपलब्ध जानकारियों के अनुसार, पृथ्वीराज चौहान जी का जन्म 1166 में गुजरात में अपने ननिहाल में हुआ था। उनके पिता का नाम सोमेश्वर तथा उनकी माता का नाम रानी करपुरा देवी था जो गुजरात में शासन करने वाले कालचुरी के चालुक्य राजवंश की राजकुमारी थी। पृथ्वीराज चौहान तथा उनके छोटे भाई हरिराजा दोनों का ही जन्म उनके ननिहाल गुजरात में हुआ क्योंकि उनके जन्म के समय तक उनके पिता सोमेश्वर चौहान वंश के राजा नहीं बने थे। वे उस समय चालुक्य वंश के दरबाद में सम्मिलित एवम कार्यरत थे।
चौहान शासक पृथ्वीराज द्वितीय की मृत्यु के बाद सोमेश्वर जी को अजमेर का अगला चौहान शासक बनाया गया परंतु वे ज्यादा दिनों तक राज नहीं कर पाए क्योंकि युद्ध में लड़ते हुए सन 1177 ईसवी में उनकी मृत्यु हो गई। अपने पिता की मृत्यु के समय पृथ्वीराज चौहान मात्र 11वर्ष के एक बालक थे। उन्होंने अल्पायु में ही अपने पिता को को दिया।

प्रारंभिक जीवन :-

पृथ्वीराज चौहान अपने ननिहाल में पलने-बढ़ने के बाद, अपने पिता द्वारा सिंहासन पर आसीन होने के पश्चात अजमेर आ गए थे। अल्पायु में ही अपने पिता की मृत्यु के पश्चात अपने राज्य के शासन की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई थी परंतु उनकी आयु कम होने के कारण उनके शासनव्यवस्था की जम्मेदारियां उठाने के काबिल बनने तक उनकी माता करपूरा देवी ने अपने विश्वासी मंत्रियों की सहायता से राज्य की शासन व्यवस्था का भार उठाया तथा राज सिंहासन की रक्षा की क्योंकि महाराज सोमेश्वर की मृत्यु के पश्चात उनके परिवार के अन्य संबंधी राज सिंहासन प्राप्त करने में लग गए थे।
जब वे 13 वर्ष के हुए तो उन्होंने अपने राज्य के सिंघासन पर 1179 में बैठा दिया गया परंतु उस समय उनकी माता शासन व्यवस्था को चलाया करती थी। पृथ्वी राज चौहान जी ने 16 वर्ष के होने के बाद एक शासक की सारी जिम्मेदारियां अपने हाथों में ले ली और राज्य का नियंत्रण उनके हाथों में आ गया। उनके दादाजी चौहान शासक अनंगम जो दिल्ली पर शासन करते थे उन्होंने भी अपने उत्तराधिकारी के रूप में पृथ्वीराज को ही चयनित किया क्योंकि उनका अपना कोई उत्तराधिकारी नहीं था और इसलिए चौहान शासक अनंगम की मृत्यु के बाद दिल्ली का शासन भी पृथ्वी राज के हाथों में ही आ गया।

पृथ्वीराज चौहान का साम्राज्य विस्तार :-

पृथ्वीराज चौहान एक वीर और कुशल शासक थे। उन्होंने अल्पायु में ही शस्त्र कला में स्वयं को पारंगत बना लिया एवम् एक पराक्रमी और प्रतिभाशाली योद्धा बन गए। वे पूरे भारवर्ष में एकमात्र योद्धा थे जो शब्दभेदी वाण चलाना जानते थे। उनके अलावा ये कला रामायण के काल में हुए राजा दशरथ को ही आती थी। हमारे सम्पूर्ण भारतीय इतिहास में केवल ये दो ही वीर थे जिन्हे शब्द भेदी वाण चलाना आता था।

पृथ्वीराज चौहान ने शासन व्यवस्था संभालने के बाद अपने राज्य विस्तार का कार्य प्रारंभ कर दिया। वे एक विशाल क्षेत्र में राज करना चाहते थे। उन्होंने अपने पराक्रम और सामर्थ्य बल पर अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया और अपनी वीरता से सभी को परिचित कर दिया।
उन्होंने तत्कालीन अन्य राजपूत राजवंशों से कई युद्ध किए तथा उन्हे जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया।
उनका साम्राज्य उत्तर में हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में माउंट आबू पर्वत श्रेणी की तलहटी तक फैला हुआ था। वर्तमान भारत के राजस्थान, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, उत्तरी मध्यप्रदेश तथा दक्षिणी पंजाब के क्षेत्र उनके साम्राज्य में सम्मिलित थे।

कला के संरक्षक:-

पृथ्वीराज चौहान कला के भी संरक्षक थे। उनके राज दरबार में कई विद्वान, कवि, चित्रकार और कलाकार उपस्थित थे।
उनके राजदरबार में जयंका जिन्होंने “पृथ्वीराज विजय” की रचना की, उनके अलावा विद्यापति गौड़, वागीश्वर जनार्दन, विश्वरूपा और चंदबरदाई शामिल थे। पृथ्वीराज चौहान एक कला प्रेमी व्यक्ति थे तथा उन्होंने विद्वानों और कलाकारों को संरक्षण प्रदान किया ।

संयोगिता स्वयंवर:-

पृथ्वीराज के समकालीन, कन्नौज प्रदेश पर गहड़वाल शासक जयचंद का शासन था। उनकी पुत्री संयोगिता अत्यंत ही रूपमती और गुणवान कन्या थी। वो पृथ्वीराज चौहान से प्रेम करती थी तथा पृथ्वीराज भी उनसे प्रेम करते थे। उन दोनो के प्रेम गाथा से संबंधित कहानियां आज भी राजस्थान में प्रचलित है।
राजकुमारी संयोगिता पृथ्वीराज की शौर्य की कहानियों को सुन कर उनसे आकर्षित हो गई थी तथा उनसे प्रेम करनी लगी थी परंतु उनके पिता जयचंद और पृथ्वी राज के बीच संबंध कुछ अच्छे नहीं थे। राजा जयचंद ने अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए एक राजसूय यज्ञ का आयोजन किया था परंतु पृथ्वीराज ने उनके वर्चस्व को स्वीकारने से इंकार कर किया जिस कारण उन दोनों के मध्य शत्रुता उत्त्पन्न हो गई।
संयोगिता वैसे तो पृथ्वीराज की वीरता से प्रभावित थी ही परंतु वे पृथ्वीराज के दरबार में उपस्थित एक चित्रकार जिसका नाम पन्ना रे था के द्वारा बनाई गई पृथ्वीराज की तस्वीर को देख कर उनसे और भी प्रेम करने लगी। उसे चित्रकार ने राजकुमारी संयोगिता का चित्र पृथ्वीराज को दिखाया था जिससे देख कर राजकुमारी की सुंदरता से वे भी इतने आकर्षित हुए कि वे भी उनसे प्रेम करने लगे।
जब राज जयचंद ने अपनी बेटी राजकुमारी संयोगिता के स्वयंवर का आयोजन किया तो उन्होंने पृथ्वीराज को छोड़कर सभी राजपूत राजाओं को आमन्त्रित किया जिससे दुखी होकर संयोगिता ने पृथ्वीराज को एक पत्र भेज कर उनसे विवाह करने की अपनी इच्छा व्यक्त की और पृथ्वीराज ने भी उनसे विवाह का वचन दिया।
उनके स्वयंवर के दिन राजा जयचंद ने पृथ्वीराज का अपमान करने के लिए उनकी एक मूर्ति बनाकर उसे अपने महल के द्वार रक्षक के स्थान पर खड़ा कर दिया था। राजकुमारी संयोगिता ने आए हुए सभी राजाओं को स्वीकार करके पृथ्वीराज की मूर्ति को स्वीकार किया और उस मूर्ति के पीछे छुपे पृथ्वीराज के गले में वरमाला डाला कर उन्हे अपना पति चुन लिया।
पृथ्वीराज ने भरी स्वयंवर से राजकुमारी का अपहरण कर उन्हे अपनी पत्नी बना कर सैनिकों से लड़ते हुए उन्हे वहा से सुरक्षित ले गए।
राजा जयचंद इस घटना के पश्चात उनके कट्टर दुश्मन बन गए और उनसे अपने अपमान का प्रतिशोध लेने का दृढ़ निश्चय कर लिया।
पृथ्वीराज और संयोगिता की ये प्रेम कहानी आज भी प्रचलित है। उनकी इस प्रेम कहानी पर आधारित कई साहित्यिक रचनाएं भी हुई है। एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटक जो “बाल कृष्ण भट्ट” जी की रचना है का नाम है “संयोगिता स्वयंवर” जिसमें पृथ्वीराज और उनकी पत्नी संयोगिता के प्रेम प्रसंग को दिखाया गया है।

पृथ्वीराज चौहान ने अपने शासनकाल में कई युद्ध लड़े जिनका वर्णन निम्नलिखित है:-

  • नागार्जुन के साथ युद्ध – पृथ्वीराज ने अपना पहला युद्ध नागार्जुन से लड़ा था जो उसके चाचा विग्रहराज IV का पुत्र था। उसने सिंघासन प्राप्त करने के लिए विद्रोह कर दिया था जिसका पृथ्वीराज ने दमन किया और उससे पराजित करने के बाद गुडापुर क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया। यह उसके जीवन की पहली विजय थी।
  • चंदेलों के साथ युद्ध – 1182 ईसवी में जेजाभुक्ति प्रदेश के चंदेल शासक परमर्दी देवा को पृथ्वीराज ने पराजित किया था। उन्हे पराजित करने के बाद पृथ्वीराज ने माहोबा प्रदेश को अपने अधिकार में कर लिया। इस विजय के बाद उनकी ख्याति और भी ज्यादा फैल गई परंतु इसके साथ ही उनके शत्रुओं की संख्या भी बढ़ गई।
  • गहड़वालों के साथ युद्ध – पृथ्वीराज चौहान की शत्रुता गहडवाल शासक जयचंद के साथ था परंतु उनकी बेटी के अपहरण की घटना के बाद उनके मध्य शत्रुता और भी बढ़ गई।
  • चालुक्यों के साथ युद्ध – 1187 ईसवी में पृथ्वीराज चौहान ने गुजरात में शासन कर रहे चालुक्य वंश (सोलंकी के चालुक्य वंश) के शासक भीमा द्वितीय पर आक्रमण कर दिया था परंतु वो उनसे पराजित हो गए। कुछ समय बाद दोनो राजवंशों ने कुछ समझौतों के द्वारा एक दूसरे के बीच संबध को सुधार लिए।
  • घुरीदों के साथ युद्ध (विदेशी शक्तियां) :-
  • ग्यारहवीं शताब्दी में हुए महमूद गजनवी के हमलों ने भारत में इस्लामी शक्तियों के प्रवेश के द्वार खोल दिए थे। भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर पश्चिमी इलाकों के क्षेत्रों इस्लामी शक्तियों ने कब्जा कर लिया था। महमूद गजनवी की मृत्यु के बाद मोहम्मद गौरी के नेतृत्व में घुरीदों का उदय हुआ जो भारत पर राज करने के मंतव्य से भारत पर आया। उसने 1175 में पहली बार भारत पर आक्रमण किया जिस समय पृथ्वीराज चौहान एक बालक थे। गुजरात के सोलंकी राजवंश से पराजित होने के बाद गौरी अपनी सेना और ताकत को पुनः गठित करने हेतु अपने देश लौट गया। उस समय वह चौहान वंश की सीमाओं को पार करते हुए वापस लौट गया। पुनः उसने दुबारा तैयारी के 1191 में भारत पर आक्रमण किया और इस बार उसका सामना पृथ्वी राज चौहान से हुआ। उन दोनों के मध्य हुए भिडंत को इतिहास में “तराइन के युद्ध” के नाम से जाना जाता है। उन दोनो के बीच दो युद्ध हुए थे:-

•तराइन का प्रथम युद्ध – मोहम्मद गौरी ने 1191 में चौहान वंश के क्षेत्र में आक्रमण किया और “तबरहिंद” या “तबर -ए- हिंद” नामक क्षेत्र में कब्जा कर लिया। इस बात का पता जब पृथ्वी राज चौहान को चला तो वे आग बबूला हो गए और उन विदेशी आक्रमणकारियों को बाहर खदेड़ने के लिए निकल पड़े उन्होंने अपने सामंतों को एकजुट करके एक गठबंधन तैयार किया और पूरी शक्ति के साथ गौरी की सेना पर आक्रमण किया। उन दोनो शक्तियों के बीच तराइन के मैदान में भीषण युद्ध लड़ा गया जिसे “तराइन के प्रथम युद्ध” के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध में गौरी की सेना पृथ्वीराज की सेना से हार गई तथा गौरी बुरी तरह से घायल हो गया जिस कारण वो अपने देश दुबारा भाग गया। युद्ध विजय के बाद पृथ्वीराज ने तबरहिंद प्रदेश को उनके कब्जे से पुनः छुड़वा लिया।

  • तराइन का द्वितीय युद्ध – तराइन के पहले युद्ध में हारने के बाद गौरी अपने देश लौट कर अपनी सेना को पुनः संगठित किया और अपनी ताकत को और बढ़ाया। इसके विपरित पृथ्वीराज चौहान ने विजय प्राप्त करने के बाद भविष्य में पुनः विदेशी आक्रमण होने की चिंता को छोड़ भोग विलास में ही अपना समय व्यतीत किया। उन्होंने भारत के उत्तर पश्चिमी भाग को सुरक्षित करने के लिए कोई भी कदम नहीं उठाए और न ही उन्होंने भविष्य में होने वाले किसी युद्ध के लिए अपनी सेना को तैयार किया। उनके संबध पहले ही अन्य राजपूत राजवंशों के साथ साम्राज्य विस्तार की नीति के कारण बिगड़ चुके थे। इन परिस्थितियों के मध्य अपनी शक्ति को सुदृढ़ करके 1192 में गौरी ने दुबारा पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण कर दिया। इस बार युद्ध में पृथ्वी राज की शक्ति गौरी के सामने काम पड़ गई। पृथ्वीराज के पुराने दुश्मन गहड़वाल शासक जयचंद ने भी गौरी को सहायता प्रदान की ताकि वो पृथ्वीराज से अपना बदला ले सके। इस युद्ध में पृथ्वीराज को हार का सामना करना पड़ा और वह गौरी द्वारा बंदी बना लिया गया।
    तराइन के इस युद्ध के बाद भारत में इस्लामिक शक्तियों का राज स्थापित हो गए।

पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु :-

तराइन के युद्ध में मोहम्मद गौरी के हाथों पराजित होने के बाद पृथ्वीराज चौहान गौरी के सैनिकों द्वारा बंदी बना लिया गया।
पृथ्वीराज की मृत्यु के संबंध में अनेक कोई सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं होती। अलग-अलग स्रोतों में अलग अलग कहानियां बताई जाती है।
कुछ में ऐसा वर्णित है कि गौरी ने युद्ध जीतने के बाद पृथ्वीराज को मार डाला था।
चंदबरदाई में ऐसा उल्लेख है किया गया है कि युद्ध में हारने के बाद पृथ्वीराज को बंदी बनाकर उनको जेल में कई यातनाएं दी गई। उनके आंखों के अंधा कर दिया गया परंतु उन्होंने अपनी शब्दभेदी वाण चलाने की कला द्वारा अपने राजकवि चंदबरदाई के वर्णानुसार निशाना साध कर भरे दरबार में गौरी की हत्या कर दी थी परंतु यह एक अतियोक्ति ही लगती है क्योंकि अन्य उपलब्ध जानकारियों के अनुसार गौरी की मृत्यु उसके अपने देश गजनी में हुई थी।

निष्कर्ष :-

सम्राट पृथ्वीराज चौहान भारत के महनतम शासकों के बीच आते है। उन्होंने अपने प्रतिभा और बल के माध्यम से अपने राज्य का विस्तार किया और अपने समय में अत्यधिक ख्याति अर्जित की। उन्होंने बहुत ही कम आयु में ही राजकाज का भार संभाला और एक कुशल शासक बने। उनकी वीरता की कहानियां आज भी प्रचलित है परंतु उनके द्वारा की गई ak छोटी सी भूल के कारण भारत में इस्लामिक शक्तियां अपना अधिकार स्थापित कर पाई। यदि उस समय उन्होंने अपने विजय और अपनी शक्ति पर अभिमान न करके और अपनी एक जीत का उत्सव मनाने में समाई व्यतित न कर अगर भविष्य में आने वाले संकटों पर ध्यान देकर उत्तर पश्चिमी सीमा की सुरक्षा पर ध्यान दिया होता तो वे विदेशी आक्रमणकारी कभी भी भारत पर अपना शासन स्थापित नही कर पाते। यदि वे अन्य राजपूत राजाओं के साथ अपनी निजी दुश्मनी को परे रख कर एक जुट होकर उस विदेशी शक्तियों का सामना करते तो शायद आज भारत का इतिहास कुछ और होता। भारत में इस्लाम कभी उदित न हो पाता।
हम अपने इतिहास को तो परिवर्तित नहींकर सकते परंतु इतिहास में हुए भूलों से सिख लेकर अपना भविष्य अवश्य ही सुधार सकते हैं। हमे पृथ्वीराज चौहान से यह सीख लेनी चाहिए कि बाहरी संकट के समय हमारी निजी और घरेलू परिस्थितियां चाहे जो भी हो, अपने निजी बैर को भुला कर हमे एकजुट होकर उस संकट का सामना करना चाहिए।
उनकी जीवन गाथा हमे यह सीख भी देती है की हमे अपने वर्तमान के प्राप्त किए गए विजय पर अभिमान न करके भविष्य में आने वाली नई चुनौतियों के लिए स्वयं को तैयार करने में समय व्यतीत करना चाहिए। यदि हम समय का सही उपयोग कर स्वयं को भविष्य के लिए तैयार न करे तो हम छोटी से छोटी मुश्किल के सामने भी हार जाएंगे।

हमारा गौरवमई इतिहास और हमारे इतिहास के प्रत्येक पात्र हमें भूतकाल में उनके द्वारा की गई गलतियों से सीख देते है ताकि हम उनसे सीखे और दुबारा अपने जीवन में वो गलती न दोहराएं वरन उनसे उचित सीख लेकर अपने भविष्य को सुधारे और उज्जवल बनाएं।

धन्यवाद।