पढ़ा सुना सीखा सभी , मिटी न संशय शूल।
कहे कबीर कैसो कहू , यह सब दुःख का मूल।।
अर्थ : पढ़ा सुना सीखा सभी अर्थात पढ़ भी लिया ,सुन भी लिया और सीख , लेकिन फिर भी संशय का शूल अर्थात confusion नहीं खत्म हुयी। कबीर जी कहते है कि मैं कैसे कहूँ ,यह सब तो दुःख का मूल है।
इन पंक्तियों का बहुत ही गूढ़ अर्थ है। कबीर जी अपनी इन पंक्तियों के द्वारा कहते है कि मैंने बहुत कुछ पढ़ा,सुना और सीखा है लेकिन मैं जितना ज्यादा सीखता जाता हूँ उतनी ही उलझन में फंसता जाता हूँ। उनके कहने का भाव है कि वह सारा कुछ त्यागकर सिर्फ ईश्वर की भक्ति में लीन होना चाहते है और सब कुछ भूल जाना चाहते है बस उन्हें सिर्फ ईश्वर की प्राप्ति चाहिए जिससे वह परमानन्द की प्राप्ति कर सके और दुनियादारी के झंझटों से मुक्ति पा सके क्यूंकि वह जितना कुछ सीखते जाते है उतना ही दुनियादारी में फंसते जाते है। इसलिए उन्होंने ज्ञान को दुःख का मूल कहा है।
जिस मरने से जग डरे , मेरे मन में आनंद।
कब मरुँ कब पाऊँ , पूरन परमानंद।।
अर्थ : कबीर जी ने अपनी इन पंक्तियों के द्वारा ईश्वर के प्रति भक्ति का वर्णन किया है। कबीर जी कहते है कि लोग मरने से डरते है ,लेकिन वही मरने के बारे में सोचकर मेरे मन में आनंद आता है। क्यूंकि जब मृत्यु होगी तभी वह अपने निराकार को प्राप्त कर सकते है और निराकार की प्राप्ति के बाद ही उन्हें पूर्ण आनंद की प्राप्ति होगी।
धीरे-धीरे रे मना , धीरे सब कुछ होये ।
माली सींचै सौ घड़ा , ऋतु आये फल होये।।
अर्थ : कबीर जी ने अपने इस दोहे के द्वारा मन की बेचैनी का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। कबीर जी मन को कहते है कि धीरे धीरे चल ,धीरे-धीरे सब काम होते है। जैसे माली जब खेत को सींचता है और फिर बीज बोता है फिर पानी देता है ,उसके बाद ही जब सही मौसम आता है फिर ही फसल उगती है।
इस दोहे में मन के धीरे-धीरे चलने से तात्पर्य है कि हम जब भी कोई काम करने लगते है तब हम सोचते है कि यह काम एकदम से पूरा हो जाए। हम जब कोई नया व्यापार शुरू करते है और जब एकदम से मुनाफ़ा नहीं होता तो मन उदास हो जाता है। या फिर अगर हम ईश्वर के प्रति भक्ति की भी बात करे जो लोग सिर्फ कुछ मांगने के लिए ही भक्ति का सहारा लेते है उनका मन डोलने लग जाता है। लेकिन जिनकी भक्ति निष्काम होती है ,वह अपनी भक्ति में ही लगे रहे है और मन को डोलने नहीं देते और समय आने पर उन्हें ईश्वर की प्राप्ति भी हो जाती है। इसलिए कबीर जी ने कहा है माली सींचै सौ घड़ा , ऋतु आये फल होये अर्थात सब्र रखो , जैसे धीरे-धीरे समय आने पर ही खेतों में फसल उगती है ,वैसे ही आप जिस भी काम में लगे है वह भी धीरे-धीरे समय रहते ही पूरा होगा ,एकदम से कुछ भी नहीं हो जाता।
कबीरा सीप समुन्द्र की , खरा जल नाही ले।
पानी पिए स्वाति का , शोभा सागर दे।।
अर्थ : कबीर जी अपनी इन पंक्तियों में सीप के स्वभाव का वर्णन करते है। कबीर जी कहते है कि समुद्र में जो सीप होती है वह समुद्र का खारा जल नहीं लेती। वह स्वाति के नक्षत्र की प्रतीक्षा करती है और जब स्वाति नक्षत्र की जल की बूँद सीप में आती है तब वह मोती बन जाती है और सागर को शोभायमान करती है।
कहने का तात्पर्य यह है कि समुद्र में इतना जल होता है फिर भी सीप उस जल को नहीं लेती बल्कि वह प्रतीक्षा करती है और जब स्वाति नक्षत्र आता है तब उस समय जो जल की एक बूँद होती है सीप में आकर वह मोती बन जाती है। यह बात हमे भी समझनी चाहिए कि अपने आस-पास की छोटी-छोटी चीजों की तरफ हमें आकर्षित नहीं होना चाहिए ,अगर आपको लगता है आप कुछ ख़ास कर सकते है और दूसरों से अलग है ,तो फिर एक अच्छे से मौके की प्रतीक्षा करे और कुछ खास कीजिये ,जिससे आप अपना और अपने परिवार का नाम रोशन कर सके।
दुर्लभ मानुष जन्म है , देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यु पत्ता झड़े , बहुरि न लागे डार।।
अर्थ : कबीर जी ने अपने इस दोहे के द्वारा मनुष्य की सोच का बहुत ही बखूबी वर्णन किया है। कबीर जी कहते है कि मनुष्य का जन्म मिलना बहुत ही दुर्लभ है ,यह शरीर बार-बार नहीं मिलता। जैसे वृक्ष से जब पत्ता झड़ जाता है वह द्वारा वृक्ष पर नहीं लग सकता उसी प्रकार जब मनुष्य का जन्म पूरा हो जाता है ,उसके बाद फिर से उसे मनुष्य जन्म मिलना बहुत ही कठिन है।
कबीर जी के कहने का भाव यह है कि मनुष्य विकारों में ही लिप्त रहता है। कुछ लोग तो ऐसे होते है कि बुरे कामों में ही लगे रहते है और सोचते है कि मनुष्य जन्म मिला है वह जो चाहे वह कर सकते है ,लेकिन वह यह भूल जाते है कि उनकी भी मृत्यु आएगी और बाद में उन्हें मनुष्य का जन्म नहीं मिल पाएगा। मनुष्य का शरीर सिर्फ अच्छे कर्मों के द्वारा ही दुबारा प्राप्त किया जा सकता है। इस दोहे के द्वारा कबीर जी ने मनुष्य को अच्छे कर्म करने के बारे में कहा है। क्यूंकि अगर कर्म अच्छे होंगे तभी वह मनुष्य जन्म फिर से प्राप्त कर सकता है या फिर जन्म-मरण के बंधन से भी मुक्त हो सकता है। लेकिन अगर मनुष्य के कर्म ही बुरे होंगे फिर वह 84 के चक्कर में ही चक्कर काटता रहेगा। जिस प्रकार एक बार पत्ता वृक्ष से गिरने के बाद द्वारा डाली पर नहीं लग सकता उसी प्रकार जब मनुष्य पाप कर्म करेगा उसके बाद वह फिर से मनुष्य जन्म नहीं प्राप्त कर पाएगा।
दोस्तों आपको दोहों का इस प्रकार का वर्णन कैसा लगा जरूर बताईयेगा। अगर आपको इनमे कही कोई भी गलती लगे तो मुझे जरूर बताईये।
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Nikhil Ji Aapne Kabir das ji ke doho ko bahut hi sarlata aur achhi tarah se samjhaya hai.. padhne aur samjhne me bahut hi sahuliyat hui.. Aage bhi Aise hi likhte rahe.
सुरेन्द्र जी , मुझे ख़ुशी हुयी कि आपको मेरी लेखन कुशलता पसंद आई । होंसला बढ़ाते रहने के लिए आपका धन्यवाद ।
प्रिय निखिल जी, 'ज्ञानपूंजी' वेबसाइट को पढ़कर अच्छा लगा.
आप इसी तरह ज्ञान की पूँजी को सम्रद्ध करते रहिए और अनमोल ज्ञान के भण्डार को हम तक पहुंचाते रहिए
बांटने से ज्ञान बढ़ता है.
शुभकामनाएं :)
hindisuccess.com
प्रिय निखिल जी, 'ज्ञानपूंजी' वेबसाइट को पढ़कर अच्छा लगा.
आप इसी तरह ज्ञान की पूँजी को सम्रद्ध करते रहिए और अनमोल ज्ञान के भण्डार को हम तक पहुंचाते रहिए
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शुभकामनाएं :)
अनिल जी, आपको मेरा ब्लॉग पसंद आया मुझे बहुत ख़ुशी हुयी । ज्ञानपुंजी ब्लॉग को बनाने का मेरा मूल उद्देश्य ही यही है कि मैं हमारी सांस्कृतिक विरासत के ज्ञान और शिक्षाओं को लोगों तक एक अलग ही तरिके से पहुंचा सकूं ,जिससे अधिक से अधिक लोग असल ज्ञान के बारे में जान सके और हमारी गौरवमयी सभ्यता पर गर्व महसूस कर सके ।
शुक्रिया आपका :)
आपने सुंदर शब्दों
में दोहों की व्याख्या की है ... बधाई ....